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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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विभूतिचरण सराय में पहुँचा तो नगर के बहुत-से धनी-मनी सेठ उसकी प्रतीक्षा में वहाँ एकत्रित हो रहे थे। भटियारिन की सराय पर मंदिर की निर्माण समिति के लोग भी आगरा आ चुके थे और यह बात विख्यात हो चुकी थी कि मंदिर का उद्घाटन और देवता का प्रतिष्ठान पंडित विभूतिचरण कर रहे हैं। इससे सब प्रसन्न थे और उस समारोह का कार्यक्रम बनाने सब एकत्रित हो रहे थे।
विभूतिचरण आया तो सब उसे घेर कर सराय के एक बड़े कमरे में एकत्रित हो गए।
पंडित सदा की भाँति प्रसन्न वदन उनमें बैठ पूछने लगा, ‘‘किस कारण आए हैं?’’
‘‘हम वैशाख प्रतिपदा का कार्यक्रम जानने के लिए आए हैं। हमारा अनुमान है कि उस दिन वहाँ पर लाखों की संख्या में हिंदू एकत्रित होंगे। पिछले तीन सौ वर्ष से किसी भी मंदिर का उद्घाटन और मूर्ति की स्थापना खुले रूप में नहीं हो रही। इस समय यह हो रही है। इसलिए वहाँ लाखों का एकत्रित हो जाना संभव है। इस कारण सब कुछ पहले ही निश्चय कर उसका प्रबंध भी तो करना चाहिए। वहाँ सबके खाने और पीने का प्रबंध भी होना चाहिए।’’
विभूतिचरण देख रहा था कि राज्य की ओर से किंचिन्मात्र अनुमति मिलने से हिंदू समाज में जागृति की तरंग दौड़ गई है। वह समझता था कि यही जीवन का लक्षण है। इस कारण वह प्रसन्न था।
उसने कार्यक्रम निर्धारित कर दिया। उसने कहा, ‘‘मूर्तिप्रतिष्ठा का मुहूर्त दूसरे प्रहर तीन घड़ी व्यतीत होने पर होगा। यजमान की दीक्षा उससे पहले हो जानी चाहिए।
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