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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘वह भी कह दो माँ? तभी तो मैं इन सब बातों पर व्यय का अनुमान लगा सकूँगा।’’

‘‘वह तो घर के विषय में है।’’ रामरखी ने कुछ झिझकते हुए कहा, ‘‘‘मैं चाहती हूँ कि अब मेरी सहायता के लिए तुमको घर में किसी और को भी लाना चाहिए। मैं तुम्हारे घर के बड़ते हुए काम को अकेली सँभाल नहीं सकती।’’

‘‘तो माँ ! नौकर और नौकरानियाँ, जितनी चाहिएँ रख लो न।’’

‘‘कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? क्या मेरे काम का मूल्य एक नौकर के बराबर मानते हो तुम?’’

फकीर कुछ न समझते हुए भौंचक्का रह गया। उसने पूछ लिया, ‘‘तो माँ ! तुम क्या चाहती हो?’’

‘‘बेटा ! नौकर नहीं चाहती। मैं तो घर मे एक और ऐसा व्यक्ति चाहती हूँ, जो मेरे स्वामित्व में बँटबारा कर सकें।’’

फकीरचन्द के मन में प्रकाश होने लगा था। इसपर भी वह इस विषय में अभी बातचीत को पसन्द नहीं करता था। उसने कहा, ‘‘माँ ! अब तुम अपने कामों में मुझसें राय माँगना आरम्भ कर रही हो। मैं स्वयं को इस योग्य नहीं मानता।’’

इसपर रामरखी ने एक और बात आरम्भ कर दी–‘‘हाँ, एक बात तो भूल ही चली थी। मैं चाहती हूँ कि जहाँ अपनी भूमि की उपज में तुम अपना हिस्सा निकाल रहे हो, उनपर काम करने वालों का भाग दे रहे हो, वहाँ भूमिपति को भी उसका भाग देना चाहिए, नहीं तो अन्याय हो जाएगा। मैं चाहती हूँ कि जितनी भी भूमि काश्त में आ गई है, उसका लगान तुम राजा साहब को दे आओं।’’

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