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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


दिन व्यतीत होने लगे। ललितपुर के व्यापारियों ने शेष रुपया देकर माल उठवा लिया। माल जिरौन स्टेशन पर वैगनों में लादते समय तुल गया और सब दो हजार मन निकला। इस प्रकार राजा साहब को सवा सौ रुपये देने पड़े। माधो ने जब यह बात सुनी तो उसे सन्देह हो गया कि बाबू उसको माल नहीं देगा। इस कारण वह चौधरी को लेकर उसके पास पहुँचा और बोला, ‘‘बाबू ! अब माल के विषय में क्या विचार है?’’

‘‘क्यों? वचन से भाग जाना चाहते हो?’’

‘‘नहीं बाबू ! मैं समझता हूँ कि तुमको घाटा रहेगा।’’

‘‘माधो भैया ! तुमको तो हानि नहीं होगी। जाओ माल बेच आओ। मेरी ओर से सौदा पक्का जानो।’’

माधो को जहाँ विस्मय हुआ, वहाँ प्रसन्नता भी हुई। उसने कहा, ‘‘बाबू ! जुग-जुग जियो। वास्तव में मैं बीना में सौदा कर आया हूँ।’

‘‘तो ठीक कर आये हो।’’

फकीरचन्द के काम के कारण अब गाँव वालों को भी आय होने लगी थी। मजदूर, जो पहले दस-ग्यारह रुपया मासिक से अधिक पैदा नहीं कर सकते थे और वर्ष में कई-कई महीने खाली रहते थे, अब फकीरचन्द से बीस रुपये मासिक और बारह महीने का काम पा बहुत प्रसन्न थे। माधो के लकड़ी बेचने का ठेका ले लेने से गाँव में बैल-गाड़ियों को भी काम मिलने लगा। लकड़ी फाड़कर छोटा-छोटा चीला बनाने का काम करने के लिए बीसियों मजदूर काम करने लगे। ये माधों से ठेके पर काम लेते थे। दो पैसा मन चिराई दी जाती थी। माधों और चौधरी लकड़ी बेचने के काम में पत्तीदार हो गये। दोनों को भारी लाभ होने लगा।

दूसरी ओर फकीरचन्द के पास रुपया आने लगा। साथ ही राजा साहब के लिए आय का एक और स्त्रोत खुल गया।

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