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उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
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फकीरचन्द की माँ द्वारा दिये गये इस भोज से सब प्रसन्न ही हुए हो, ऐसा नहीं था। कर्मचारियों की संख्या तो बहुत ही कम थी। उनके अतिरिक्त गाँव में बहुत लोग थे, जिनको इस आयोजन से लाभ नहीं हुआ था। उनमें इस परिवार को उन्नति करते देख कुछ तो प्रसन्न थे, कुछ अलिप्त थे और कुछ ऐसे भी थे जो ईर्ष्या करते थे, इन ईर्ष्या करने वालों में एक-दो ऐसे भी थे, जो ईर्ष्या के साथ द्वेष भी करने लगे थे।
जब फकीरचन्द की माँ यह सब आयोजन कर रही थी, गाँव में एक आदमी के सीने में साँप लोट रहा था। पण्डित मंगतराम का एक पुत्र शेषराम तो फकीरचन्द की नौकरी में था और दूसरा पुत्र द्वेष की अग्नि से जल रहा था। ऐसा क्यों था, कहना कठिन है। वास्तव में दुर्जन के कामों में कारण ढूँढ़ना अति कठिन होता है।
पण्डित मंगतराम था तो ब्राह्मण, परन्तु उसके बड़े कई पीढ़ियों से पुरोहिताई छोड़ कृषक का कार्य करने लगे थे। एक छोटा-सा खेत था, जो मंगतराम के भाग में आया था। इतने खेत मे निर्वाह होना कठिन था। साथ ही इतने खेत में एक युवक पुरुष के लिए काम भी पर्याप्त नहीं था।
मंगतराम के दो लड़के और एक लड़की थी। बड़े लड़के का नाम मोतीराम था। जब वह तेरह वर्ष का हुआ और खाने-पहिनने को उसका शरीर माँगने लगा तो वह आस-पड़ोस वालों का धन-माल उठा-उठाकर प्रयोग में लाने लगा। कभी किसी के खेत से गाजर-मूली उखेड़ लाता और कभी कोई वस्तु मिल जाती तो उठा लाता और उससे अपना काम निकालता। इसपर भी उसका काम नहीं चलता था। अतः एक दिन वह घर छोड़ पैदल ही ललितपुर को चल पड़ा।
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