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उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
फकीरचन्द ने विचार कर कहा, ‘‘एक औरत के लिए बीस रुपये बहुत हैं। उसको अपने रुपयों में से कुछ-न-कुछ बचा लेना चाहिए था।’’
‘‘बहिन का एक बच्चा भी है। वह इस समय पाँच वर्ष का है। स्कूल में जाता है। इस कारण उसके पास कुछ बचता नहीं। कुछ होगा भी तो मैं जानता नहीं।’’
‘‘देखो शेष ! मैं तुमको दस-बीस रुपये दे सकता हूँ, जिससे तुम्हारा बहनोई यहाँ आ जाय; परन्तु यह शोभाजनक नहीं। मेरा कहा मानो तो तुम अपनी बहिन को मेरी माँ के पास भेज दो। माँ कल कह रही थीं कि उनको घर का काम-काज करने वाली एक औरत चाहिए, जो गाय की सानी, दूध दुहना, घर की लीपा-पोती आदि कर सके। माँ उसको पाँच रुपया महीना और रोटी-कपड़ा देगी। इस प्रकार उसके पास शीघ्र ही अपने पति को बुलाने के लिए रुपये हो जाएँगे।’’
‘‘जब वह यहाँ आएँगे, तो आप उनको काम पर लगा लेंगे क्या?’’
‘‘काम तो मेरे पास है। इस वर्ष खेत भी तैयार हो रहे हैं। मैं कुछ को तो बोऊँ-काटूँगा। करना चाहेगा तो उसको काम मिल जायगा।’’
शेषराम इससे सन्तुष्ट था। जंगल से लौट वह सीधा बहिन के घर गया और उसने बहिन को फकीरचन्द का प्रस्ताव सुना दिया। शेषराम की बहिन मीना गम्भीर विचार में पड़ गई। उसे चुप देख शेषराम ने पूछा, ‘‘क्यों, क्या विचार कर रही हो?’’
‘‘यही कि गाँव में निन्दा होने लगेगी।’’
शेषराम का इस ओर तो ध्यान गया ही नहीं था। वह जानता था कि बाबू फकीरचन्द बहुत ही भला आदमी है। परन्तु लोग क्या कहेंगे, यह भी, विचारणीय बात थी। शेषराम ने कहा, ‘‘मीना ! बाबू बहुत अच्छा आदमी है। उसकी माँ भी देवी है। अतः मुझे तो कोई निन्दा की बात प्रतीत नहीं होती। फिर भी तुम माँ से राय कर लो।’’
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