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उपन्यास >> दो भद्र पुरुष

दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


‘‘तीन वर्ष से भी अधिक हो गये हैं, निरन्तर रुपया निकलते हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि अब दिवाला ही निकलेगा। लेनदारों की माँगे आने लगी हैं और उनकी माँग पूरी नही कर सकते।’’

लक्ष्मी को मौन होना पड़ा। उस दिन मध्याह्नोत्तर लक्ष्मी ने भोजन के समय गजराज से इस विषय में पूछा, ‘‘यह कैसे हो गया?’’

‘‘मैं स्वयं भी नहीं समझ पा रहा हूँ।’’

‘‘तो मुंशी को बुलाकर समझिए, अन्यथा कल से भोजन मिलना बन्द हो जायगा।’’

‘‘भोजन तो बाज़ार में बहुत मिलता है।’’

‘‘बिना पैसे दिये मिलता है क्या?’’

‘‘गजराज हँस पड़ा। उसने कहा, ‘‘होटल का मालिक मेरा बाप नहीं जो मुफ्त में खिला दे।’’

‘‘तब तो जेब में रुपये होने चाहिए न। उसी के लिए तो मुंशी से बात करने के लिए कह रही हूँ।’’

‘‘अभी तुमको कितना चाहिए?’’

‘‘नौकरों के वेतन एवं भोजनादि के प्रबन्ध के लिए कुल मिलाकर लगभग आठ सौ रुपये चाहिए।’’

‘‘बस, इतना तो मेरी जेब में रखा है, निकाल लो।’’

‘‘आप निकाल दीजिये। आपकी जेब में आपका ही हाथ जाना चाहिये।’’

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