इतिहास और राजनीति >> 1857 का संग्राम 1857 का संग्रामवि. स. वालिंबे
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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन
ब्रिगेडियर विल्सन तक यह खबर पहुंच गयी। वह हिंदुस्तान सेना में पिछले चालीस सालों से नौकरी कर रहा था। वह अच्छी तरह जानता था कि देसी सिपाहियों को चोट पहुंचाना महंगा साबित होगा। उनको नयी बंदूकों का प्रशिक्षण देना आवश्यक था। इसलिए उसने निर्णय लिया, ‘‘हम देसी सिपाहियों को समझायेंगे। हम अभ्यास के लिए पुरानी कारतूस का ही प्रयोग करेंगे।’’
लेकिन विल्सन का यह सुझाव बाकी अंग्रेज अधिकारियों के गले नहीं उतर पाया। उनकी राय थी कि ‘‘हम अगर मेरठ के सिपाहियों को यह सहूलियत देंगे तो इसका बुरा असर अन्य जगहों पर पड़ेगा। सब यही मांग करने लगेंगे। सेना का अनुशासन खत्म हो जायेगा।’’
और यह सच भी था। एक बार अफसरों का खौफ खत्म हो जाये, तो सारा मामला बिगड़ सकता है। इसलिए सभी ने फैसला किया, ‘‘अब यह सहूलियत हरगिज नहीं देंगे।’’ निर्णय लिया गया कि देसी सिपाहियों को भी बंदूकों के साथ चरबी लगायी कारतूसें ही दी जायेंगी।
मेरठ में नब्बे घुड़सवारों का एक दल था। उनकी कवायद का दिन था। उनमें से पाँच अफसर और बाकी सभी सिपाही थे। सभी पचासी सिपाहियों ने चरबी लगी किसी वस्तु को हाथ न लगाने की कसम खायी थी। अंग्रेजी हुकूमत के गाल पर यह जोरदार तमाचा था। उन सभी सिपाहियों का कोर्ट मार्शल हुआ। उसमें से ग्यारह सिपाही हाल ही में भर्ती हुए थे। उनको पांच साल की तथा बाकी सिपाहियों को दस साल की कैद सुनायी गयी।
इस सजा की तामील देसी सिपाहियों के सामने की गयी। 9 मई को सुबह नौ बजे मेरठ छावनी के सभी सिपाहियों को मैदान पर बुलाया गया। इसकी वजह उन सबको नीचा दिखाना था। ये सिपाही संख्या में सत्रह सौ थे जिन्हें अपने साथियों की बेइज्जती पसंद नहीं आयी। इस सजा के तहत गुनहगार सिपाहियों की वर्दी उतार ली गयी थी। हथियार छीनकर पचासी सिपाहियों को नंगे पांव कर दिया गया। उनके शरीर पर लंगोट के सिवाय कुछ नहीं था।
नंगे पांव, बिना पगड़ी और हाथों में बेड़ी लटकाये हुए सिपाहियों का जुलूस निकाला गया। कवायद मैदान से लेकर जेल की तरफ जाता हुआ यह जुलूस सारे मेरठ शहर ने देखा। शहरवासियों के आंखों में खून उतर आया।
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