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इतिहास और राजनीति >> 1857 का संग्राम

1857 का संग्राम

वि. स. वालिंबे

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8316

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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन

बिठूर के महाराज


दिल्ली में अंग्रेजों की हुई कत्ल की चर्चा दिल्ली के आसपास के छोटे कसबों, गांवों में फैल गयी। सभी जगह विद्रोह की लहर दौड़ गई। सभी गांवों में अंग्रेजों के सरकारी कचहरियों पर लोग हमले करने लगे। इंकलाब के नारे बुलंद हो रहे थे। बंगाल के पश्चिमी क्षेत्र से लेकर पंजाब के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र तक की चिंता सरकार को सताने लगी। ईस्ट इंडिया कंपनी के कलकत्ता स्थित मुख्यालय में सन्नाटा छा गया।

दिन-ब-दिन लोगों में विद्रोह की भावना बढ़ रही थी। अलीगढ़, शाहजहांपुर, बरेली, फरीदाबाद, आजमगढ़, मुरादाबाद आदि सभी शहरों में विद्रोह की हवा फैल गयी थी। राजपुताना नजदीक था। नसीराबाद और नीमच भी विद्रोह की चपेट में आ गये थे। सिपाही अंग्रेजों के आदेशों का पालन नहीं कर रहे थे। जून, जुलाई, अगस्त के नब्बे दिनों में बागी सिपाहियों को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई। लेकिन बागी सिपाही किसी प्रभावी नेता की तलाश कर रहे थे। इस मुहिम की बागडोर सौंपने के लिए लायक नेता की तलाश शुरू हो गयी।

बिठूर के महाराज श्रीमंत धोंड़ोपंत उर्फ नाना साहब पेशवा कानपुर में पधारे थे। उनके मन मे अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की भावना पनप रही थी। बागी सिपाहियों के नेता नाना साहब से जाकर मिले। वे उनसे प्रार्थना करने लगे, ‘‘श्रीमंत ! हमने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की है। हमें आपका आशीर्वाद चाहिए। आदरणीय महाराज के सहयोग से हम अवश्य विजयी हो जायेंगे। हम आपका राजपद फिर से बहाल करेंगे। आप बिठूर के महाराज बन पायेंगे।’’

यह सुनकर नाना साहब चकित हुए। उन्होंने कभी इस बगावत की ओर गंभीरता से देखा नहीं था। वह चाहते थे कि उनका खोया हुआ राजपद स्वयं की बहादुरी से प्राप्त हो। वे कंपनी सरकार की मेहरबानी पर निर्भर नहीं रहना चाहते थे। उन्होंने बागी सिपाहियों के प्रस्ताव को तुरंत मान लिया।‘‘हां, मैं आपके साथ हूँ।’’

इस विषय पर विस्तार से बातचीत हुई। अब समय बहुत कम बचा था।

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