इतिहास और राजनीति >> 1857 का संग्राम 1857 का संग्रामवि. स. वालिंबे
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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन
20 मार्च 1857 को लॉरेंस तबादला होकर लखनऊ आया था। उससे पहले वह लाहौर में था। लाहौर और लखनऊ की आबोहवा में काफी अंतर था। लखनऊ की अपेक्षा लाहौर काफी शांत इलाका था। उसने सोचा, आम जनता की खबर लेकर उनकी परेशानी दूर करनी चाहिए, तभी अवध की जनता कंपनी सरकार को सहयोग देगी। अवध रियासत खत्म होते ही लखनऊ रेजिडेंसी में आम जनता के प्रवेश पर रोक लगा दी गयी थी। लॉरेंस ने यह रोक हटा दी। वहां के व्यापारी और सरदारों की बैठक हर हफ्ते आयोजित होने लगी। लॉरेंस चीफ कमिश्नर के साथ ब्रिगेडियर जनरल भी था। लखनऊ की फौज में अफरातफरी मच गयी थी। घुड़सवार एक जगह तो थल सेना किसी दूसरी जगह तैनात कर दी थी। तोपखाने की विपरीत दिशा में हथियार गोदाम रखा गया था। अवध की राजधानी की रक्षा के लिए अंग्रेज सिपाहियों की सिर्फ एक टुकड़ी तैनात की गयी थी। बैरक से उनकी रेजिडेंसी डेढ़ मील की दूरी पर थी। रंजिडेंसी और बैरक के बीच देसी सिपाही रहते थे। देसी सिपाहियों में विद्रोह की भावना उबल रही थी। इस विद्रोह का विस्फोट कभी भी हो सकता था।
अप्रैल के शुरू में यह विद्रोह सामने आ गया। डाक्टर वॉल्टर वेल्स हमेशा की तरह फौजी अस्पताल में चक्कर लगाने निकले थे। उनके पेट में अचानक दर्द शुरू हुआ। उन्होंने दवा की शीशी मुंह में लगा दी। दवा जूठी हो गयी। एक देसी सिपाही ने यह सब कुछ देख लिया। वह कर्नल पामर के पास चिल्लाते हुए पहुंचा। पामर ने डा. वेल्स को खूब डांटा और शीशी तोड़ दी। इसके बावजूद सिपाहियों का गुस्सा शांत नहीं हुआ। उनके मन में शक की भावना बढ़ती गयी। इसी दौरान एक सिपाही ने डा. वेल्स के बंगले में आग लगा दी। वेल्स और उसकी पत्नी जान बचाकर पड़ोस के घर भाग निकले। घर की सारी चीजें लूट ली गयीं। पूरा बंगला जलकर ढेर हो गया। उसकी खबर लोगों को दूसरे दिन मिली। देसी सिपाहियों ने अपने अफसरों से कहा—
‘‘आज के बाद हम कारतूस दांतों से नहीं तोड़ेंगे।’’
‘‘क्यों नहीं? तुम्हें दांतों से ही तोड़ना होगा।’’
‘‘हम चुप नहीं बैठेंगे। अपना धर्म भ्रष्ट नहीं होनें देंगे। धर्म भ्रष्ट करने वालों को मौत के घाट उतार देंगे।’’
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