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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

सातवाँ दृश्य

(संध्या का समय है। पानी बरस चुका है। हवा में नमी है। आसमान भागते हुए बादलों से भरा है। कभी– कभी चाँद झाँकने लगता है। जालपा का वही कमरा है। रमानाथ इस चारपाई पर पड़ा है। तभी जालपा वहाँ प्रवेश करती है। रमानाथ उठ कर बैठ जाता है। कौतुक से मुँह बना कर कहता है। )

रमानाथ– आज सराफे का जाना तो व्यर्थ ही गया। हार कहीं तैयार न था। बनाने को कह आया हूँ।

जालपा– (एकदम खिन्न हो कर) वह तो पहले ही जानती थी। बनते– बनते पाँच– छह महीने तो लग ही जायेंगे।

रमानाथ– नहीं जी, बहुत जल्द बना देगा, कसम खा रहा है।

जालपा– ऊँहँ, जब चाहे दे।

(जालपा मुँह फेर लेती है। तभी रमानाथ जोर से कहकहा लगाता है। जालपा चौंककर सुनती है मुस्कराती है।)

जालपा– तुम भी बड़े नटखट हो क्या लाये?

रमानाथ– कैसा चकमा दिया।

जालपा– यह तो मरदों की आदत ही है। तुमने नयी बात क्या की। अब दिखाओ न। (रमानाथ दो मखमली केस निकालता है। जालपा शीघ्रता से झपट कर उन्हें खोलती है।)

जालपा– ओह, हार..शीशफूल। (हार गले में पहनती है, शीशफूल को जूड़े में सजाती है, उसका एक एक अंग खिल उठता है। उन्मत– सी हो कर कभी हार को देखती है कभी शीशफूल को निकाल कर फिर लगाती है। रमानाथ पर नशा चढ़ता जाता है जालपा पागल– सी उसे देखकर बोल उठती है।)

जालपा– तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ ईश्वर तुम्हारी सारी मनोकामना पूरी करें।

रमानाथ– धन्यवाद।

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