लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394

Like this Hindi book 11 पाठकों को प्रिय

336 पाठक हैं

‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है


जालपा—रतन से दो सौ रुपये मँगवा लिये थे?

रमा—हाँ, कहार ले आया था।

जालपा—अच्छा खाना ले आऊँ।

रमानाथ—नहीं, खाना नहीं खाऊँगा।

जालपा—क्यों?

रमानाथ—भूख नहीं है।

जालपा—मेरी ओर देखो। तुम मुझे समझते क्या हो? मुझसे कोई बात नहीं कहते। मैं क्या वेश्या हूँ, जिससे कोई मन की बात नहीं कहता?

रमानाथ—(काँपता है) जालपा….

जालपा—(दुखी होकर) हाँ, बोलो, मैं गलत कह रही हूँ? हर वक्त घबड़ाये हुए रहते हो। बेगार की तरह भोजन करते हो। मुझे….मुझे विलासिनी समझते हो। इसी रूप में देखते हो। मेरा काम है विहार करना, विलास करना। मुझे तुम्हारी चिंताओं से मतलब? ईश्वर ने वैसा हृदय नहीं दिया। क्या करूं! मैं समझती हूँ जब मुझे जीवन ही व्यतीत करना है, जब मैं केवल तुम्हारे मनोरंजन की ही वस्तु हूँ तो क्यों अपनी जान विपत्ति में डालूँ…

रमानाथ—(काँपता है) जालपा! तुम गलत समझ रही हो। मैं तुमसे कुछ नहीं छिपाता। ऐसी कोई बात भी तो नहीं है।

जालपा—(साँस लेकर) ठीक तुम्हारी मरजी। मैं खाना लाती हूँ।

(चली जाती है। रमानाथ गहरी साँस लेता है।)

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book