लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394

Like this Hindi book 11 पाठकों को प्रिय

336 पाठक हैं

‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

चौथा दृश्य

(तीसरे अंक के पहले दृश्यवाला देवीदीन का घर। सबेरे के आठ बज चुके हैं। आस– पास खासी चहल– पहल है। रमानाथ बरामदे में खड़ा कुछ सोच रहा है। तभी सामने से देवीदीन की पत्नी जग्गो साग– बाजी की एक टोकरी सर पर रखे और एक बड़ा– सा टोकरा मजूर के सिर पर रखवाये आती है। पसीने से तर है।)

जग्गो—(पुकार कर) कहाँ गये? जरा बोझा तो उतारो, गर्दन टूट गयी।

रमा—(एकदम आगे बढ़ कर) अभी उतारता हूँ।

(टोकरी उतरवाता है, जग्गो हाँफती है।)

जग्गो—कहाँ गये?

रमा—मुझे तो नहीं मालूम, अभी इसी तरफ चले गये हैं।

(इसी बीच बुढ़िया मजूर का टोकरा उतरवाती है, और फिर बैठ कर टूटी– सी पंखियाँ झलने लगती है।)

जग्गो—चरस की चाट लगी होगी और क्या! मैं मर—मर कमाऊँ और यह बैठे– बैठे मौज उड़ायें और चरस पियें।

रमानाथ—क्या, चरस पीते हैं? मैंने तो नहीं देखा।

जग्गो—(पीठ खुजाती हुई) इनसे कौन– सा नशा छूटा है? चरस यह पीयें, गाँजा यह पीयें, शराब इन्हें चाहिए, भाँग इन्हें चाहिए। हाँ, अभी तक अफीम नहीं खायी, या राम जाने खाते हों।

रमानाथ—मैंने तो दादा को कभी कुछ खाते नहीं देखा।

जग्गो—तू क्या देखता भैया? मैं ही कौन हरदम देखती रहती हूँ। मैं तो सोचती हूँ हाथ में चार पैसे होंगे, तो पराये भी अपने हो जायेंगे, पर इस भले आदमी को रत्ती भर चिन्ता नहीं सताती। कभी तीरथ है, कभी कुछ मेरा तो नाक में दम आ गया! (मज़ूर से) कै पैसे हुए तेरे?

मजूर—(बीड़ी जलाते हुए) बोझ देख लो माई, गर्दन टूट गयी।

जग्गो—(कठोरता से) हाँ, हाँ, गर्दन टूट गयी। बड़ी सुकुमार है न। यह ले, कल फिर चले आना।

(पैसे देती है)

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book