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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
सातवाँ दृश्य
(वही छठे दृश्यवाला कमरा। दरवाजे पर देवीदीन बैठा सिपाही से बातें कर रहा है। तभी जग्गो वहाँ आती है।)
जग्गो—तुम यहाँ क्या करने लगे? भैया कहाँ हैं?
देवीदीन—(मर्माहत) भैया को ले गये सुपरीडंट के पास। न जाने भेंट होती है कि ऊपर परागराज भेज दिये जाते हैं।
जग्गो—दारोगा जी भी बड़े वह हैं। कहाँ तो कहा कि इतना लेंगे, कहाँ ले कर चल दिये।
देवीदीन—इसी लिए तो बैठा हूँ कि आयें तो दो– दो बातें कर लूँ।
जग्गो—हाँ, फटकारना जरूर। जो अपनी बात का नहीं, वह अपने बाप का क्या होगा! मैं तो खरी कहूँगी। मेरा कर क्या लेंगे?
देवीदीन—दुकान पर कौन है?
जग्गो—बंद कर आयी हूँ। अभी बेचारे ने कुछ खाया भी नहीं। चूल्हे में जाय तमासा। उसी लिए टिकट लेने तो जाते थे। न घर से निकलते तो काहे को यह बला सिर पड़ती!
देवीदीन—जो उधर ही से परागराज भेज दिया तो?
जग्गो—तो चिट्ठी तो आयेगी ही। चल कर वहीं देख आवेंगे।
देवीदीन—(आँखों में आँसू भर कर सजा हो जायेगी।
जग्गो—रुपया जमा कर देंगे तब काहे की सजा होगी। सरकार अपने रुपये ही तो लेगी।
देवीदीन—नहीं पगली ऐसा नहीं होता। चोर माल लौटा दे तो वह छोड़ थोड़े ही दिया जायगा।
जग्गो—दारोगा जी…
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