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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
देवीदीन—हाँ बहू जी! मुझे इसका बहुत अंदेशा है। और सच पूछो तो है भी जोखिम। अगर वह बयान बदल भी दें, तो पुलिस के पंजे से नहीं छूट सकते। वह कोई दूसरा इलजाम लगा कर उन्हें पकड़ लेगी और फिर नया मुकदमा चलायेगी।
जालपा—(दृढ़ता से) दादा, मैं उन्हें पुलिस के पंजे से बचाने का बीड़ा नहीं लेती। मैं केवल यह चाहती हूँ कि हो सके तो अपयश से उन्हें बचा लूँ, उनके हाथों इतने घरों की बरबादी होते नहीं देख सकती।
देवीदीन—दुनिया निन्दा करती है, बहू!
जालपा—दुनिया ठीक कहती है। यह मामला बिल्कुल झूठा है। मैं यह किसी तरह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि वह अपने स्वार्थ के लिए झूठी गवाही दें। अगर उन्होंने खुद अपना बयान न बदला तो मैं अदालत में जा कर सारा कच्चा चिट्ठा खोल दूँगी, चाहे नतीजा कुछ भी हो।
(देवीदीन सिर हिला कर आदर से देखता है)
जालपा—(पूर्वतः आवेश में) वह हमेशा के लिए मुझे त्याग दे, मेरी सूरत न देखे, यह मुझे मंजूर है पर यह नहीं हो सकता कि वह इतना बड़ा कलंक माथे पर लगायें। मैंने अपने पत्र में सब लिख दिया है।
देवीदीन—(प्रभावित हो कर) तुम सब कर लोगी बहू, अब मुझे विश्वास हो गया। जब तुमने कलेजा इतना मजबूत कर लिया है तो तुम सब कुछ कर सकती हो।
जालपा—तो यहाँ से नौ बजे चलें।
देवीदीन—मैं तैयार हूँ।
जालपा—तब सब ठीक है।
(जालपा कमरे में जाती है और देवीदीन बाहर। परदा गिरता है )
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