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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव

[२]

महाशय दीनदयाल प्रयाग के एक छोटे से गाँव में रहते थे। वह किसान न थे; पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे; पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे; पर थानेदारी करते थे। वह थे जमींदार के मुख्तार। गाँव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोड़ा, कई गायें-भैंसे। वेतन कुल पाँच रुपये पाते थे, जो उनके तम्बाकू के खर्च को भी काफी न होता था। उनकी आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है। जालपा उन्हीं की लड़की थी। पहले उसके तीन भाई और थे; पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता–तेरे भाई क्या हुए, तो वह बड़ी सरलता से कहती–‘बड़ी दूर खेलने गये हैं।’ कहते हैं मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अन्दर तीनों लड़के जाते रहे। तब से बेचारे बहुत सँभलकर चलते थे। फूँक-फूँककर पाँव रखते; दूध के जले थे, छाछ भी फूँक-फूँककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलम्ब !

दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिए कोई-न-कोई आभूषण जरूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुड़ियाँ और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे; इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गाँव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पड़ता, तो वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आँखों में जँचता ही न था।

एक दिन दीनदयाल लौटे, तो मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाये। मानकी को यह साध बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गयी।

जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली–बाबूजी, मुझे भी ऐसी ही हार ला दीजिए।

दीनदयाल ने मुस्कराकर कहा–ला दूँगा, बेटी।

‘कब ला दीजियेगा?’

‘बहुत जल्द !’

बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा। उसने माता से जाकर कहा–अम्माजी, मुझे भी अपना–सा हार बनवा दो।

माँ–वह तो बहुत रुपयों में बनेगा बेटी।

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