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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमा ने आँखें फाड़कर कहा–खंजाची बाबू चले गये !
तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं? अभी कितनी दूर गये होंगे?

चपरासी–सड़क के नुक्कड़ तक पहुँचे होंगे।

रमानाथ–यह आमदनी कैसे जमा होगी?

चपरासी–हुकुम हो तो बुला लाऊँ?

रमानाथ–अजी, जाओ भी, अब तक तो कहा नहीं, अब उन्हें आधे रास्ते से बुलाने जाओगे, हो तुम भी निरे बछिया के ताऊ। आज ज्यादा छान गये थे क्या? खैर रुपये, इसी दराज़ में रक्खें रहेंगे। तुम्हारी जिम्मेदारी रहेगी।

चपरासी–नहीं बाबू साहब, मैं यहाँ रुपये नहीं रखने दूँगा। सब घड़ी बराबर नहीं जाती। कहीं रुपये उठ जायँ, तो मैं बेगुनाह मारा जाऊँ। सुभीते का ताला भी तो नहीं है यहाँ ।

रमानाथ–तो फिर ये रुपये कहाँ रक्खूँ?

चपरासी–हुजूर अपने साथ लेते जायें।

रमा तो यह चाहता ही था। एक इक्का मँगवाया, उस पर रुपयों की थैली रक्खी और घर चला। सोचता जाता था कि अगर रतन भभकी में आ गयी, तो क्या पूछना कह दूँगा दो-ही चार की कसर है। रुपये सामने देखकर उसे तसल्ली हो जायगी।

जालपा ने थैली देखकर पूछा–क्या कंगन न मिला?

रमानाथ–अभी तैयार नहीं था, मैंने समझा रुपये लेता चलूँ जिसमें उन्हें तसकीन हो जाय।

जालपा–क्या कहा सराफ़ ने?

रमानाथ–कहा क्या आज कल करता है। अभी रतन देवी आयीं नहीं?

जालपा–आती ही होगी, उसे चैन कहाँ?

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