लोगों की राय

उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास)

ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

438 पाठक हैं

ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमानाथ–वहाँ तुम अपनी ही प्रतिमा देखतीं।

रात को जालपा ने एक भयंकर स्वप्न देखा, वह चिल्ला पड़ी। रमा ने चौंककर पूछा–क्या है जालपा, क्या स्वप्न देख रही हो?

जालपा ने इधर-उधर घबड़ायी हुई आँखों से देखकर कहा–बड़े संकट में जान पड़ी थी। न जाने कैसा सपना देख रही थी !

रमानाथ–क्या देखा?

जालपा–क्या बताऊँ, कुछ कहा नहीं जाता। देखती थी कि तुम्हें कई सिपाही पकड़े लिये जा रहे हैं। कितना भयंकर रूप था उनका।

रमा का खून सूख गया। दो-चार दिन पहले, इस स्वप्न को उसने हँसी में उड़ा दिया होता; इस समय वह अपने को सशंकित होने से न रोक सका, पर बाहर से हँसकर बोला–तुमने सिपाहियों से पूछा नहीं, इन्हें क्यों पकड़े लिये जाते हो?

जालपा–तुम्हें हँसी सूझ रही है, और मेरा हृदय काँप रहा है।

थोड़ी देर के बाद रमा ने नींद में बकना शुरू किया–अम्मा, कहे देता हूँ, फिर मेरा मुँह न देखोगी, मैं डूब मरूँगा।

जालपा को अभी तक नींद नहीं आयी थी, भयभीत होकर उसने रमा को जोर से हिलाया और बोली–मुझे तो हँसते थे और खुद बकने लगे। सुनकर रोएँ खड़े हो गये। स्वप्न देखते थे क्या?

रमा ने लज्जित होकर कहा–हाँ जी, न-जाने क्या देख रहा था कुछ याद नहीं।

जालपा ने पूछा–अम्माजी को क्यों धमका रहे थे। सच बताओ, क्या देखते थे?

रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा–कुछ याद नहीं आता, यों ही बकने लगा हूँगा।

जालपा–अच्छा तो करवट सोना। चित सोने से आदमी बकने लगता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book