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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है

बाहुबली

जैनेन्द्र कुमार

(आपका जन्म १९०५ में एक प्रतिष्ठित जैन परिवार में हुआ। आपने सबसे पहले १९२८ में कहानियाँ लिखनी प्रारम्भ कीं जिन्हें जनता ने बहुत आदर से लिया। सचमुच ही कहानी कहने की आप में आसाधारण प्रतिभा है। हिन्दी के प्रमुख कथाकारों में इस समय आपका स्थान बहुत ऊँचा है। भाषा का इतना सुन्दर गठाव भी कम ही देखने में आता है। आप मुख्यतया मनोवैज्ञानिक कहानियों के लेखक हैं। इस रूप में आप बेजोड़ हैं।)

आपके कई उपन्यास ‘परख’, ‘सुनीता’, ‘त्याग-पत्र’, ‘कल्याणी’ तथा कहानी-संग्रह जैसे ‘वातायन’, ‘एक रात’, ‘नीलम-देश की राजकन्या’, दो निबन्ध और विचार-संग्रह ‘जैनेन्द्र के विचार’ और ‘प्रस्तुत प्रश्न’ प्रकाशित हो चुके हैं।

कहानीकार, उपन्यास-लेखक और विचारक के रूप में आप हिन्दी भाषा के लिए एक स्थायी देन हैं।

बहुत पहले की बात कहते हैं। तब दो युगों का सन्धि-काल था। भोग युग के अस्त में से कर्म–युग फूट रहा था। भोग-काल में जीवन–मात्र भोग था। पाप –पुण्य की रेखा का उदय न हुआ था। कुछ निषिद्ध न था, न विधेय। अतः पाप असम्भव था, पुण्य अनावश्यक। जीवन बस रहना था। मनुष्य इतर प्रकृति के प्रति अपने आप में स्वत्व का अनुभव नहीं करने लगा था और प्रकृति भी उसके प्रति पूर्ण वदान्य थी। वृक्ष कल्पवृक्ष थे। पुरुष तन ढाँकने को वल्कल उनसे पा लेता, पेट भरने को फल। उसकी हर बात प्रकृति ओढ़ लेती। विवाह न था और परस्पर सम्बन्धों में नातों का आरोप न हुआ था! स्त्री, माता, बहन, पत्नी, पुत्र न थी, वह मात्र मादा थी। और पुरुष नर। अनेक थलचर प्राणियों में मनुष्य भी एक था और उन्हीं की भाँति जीता था।

उस युग के तिरोभाव में से नवीन युग का आविर्भाव हो रहा था। प्रकृति मानों कृपण होती लगती थी उस समय विवाह ढूँढ़ा गया। परिवार बनने लगे, और परिवारों से समाज। नियम-कानून भी उठे। ‘चाहिए, का प्रादुर्भाव हुआ और मनुष्य को ज्ञात हुआ कि जीना रहना नहीं है, जीना करना है। भोग से अधिक जीवन कर्म है और प्रकृति को ज्यों का त्यों लेकर बैठने से नहीं चलेगा। कुछ पर संशोधन, परिवर्तन, कुछ उस पर अपनी इच्छा आरोप भी आवश्यक है। बीज उगाना होगा, कपड़े बनाने होंगे, जीवन संचालन के लिए नियम स्थिर करने होंगे और जीवन-संवृद्धि के निमित्त उपादानों का भी निर्माण और संग्रह कर लेना होगा। अकेला व्यक्ति अपूर्ण है, अक्षम है, असत्य है। सहयोग स्थापित करके परिवार, नगर, समाज बनाकर पूर्णता, क्षमता और सत्यता को पाना होगा।

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