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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


एकाएक ऐसा प्रतीत हुआ जैसे पत्थर की मूर्ति के होंठ हिलते हैं। स्वामी विद्यानन्द ने अपने कान उधर लगा दिये। आवाज आई–तू क्या माँगता है, यश?

‘नहीं, मुझे उसकी आवश्यकता नहीं।’

‘तो फिर जगत-दिखावा क्यों करता है?’

‘मुझे शान्ति चाहिए?’

‘शान्ति के लिए सेवा-मार्ग की आवश्यकता है। पर्वत छोड़ और नगर में जा। जहाँ दुःखी जन रहते हैं; उनके दुःख दूर कर। किसी के घाव पर फाहा रख; किसी के टूटे हुए मन को धीरज बँधा; परन्तु यह रास्ता भी तेरे लिए उपयुक्त नहीं। तेरा पुत्र है; तू उसकी सेवा कर। तेरे मन को शान्ति प्राप्त होगी।’

यह सुनते ही स्वामीजी के नेत्रों से पर्दा हट गया। जागे तो वास्तविक भेद उन पर खुल चुका था कि मन को शान्ति कर्तव्य के पालन से मिलती है उन्होंने सुखदयाल को जोर से गले लगया और उसके रूखे मुँह को चूम लिया।

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