उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
धनिया ने पुकारा–सो गये कि जागते हो?
होरी झटपट उठा और मँड़ैया के बाहर निकल आया। आज मालूम होता है, देवी प्रसन्न हो गयी, उसे वरदान देने आयी हैं, इसके साथ ही इस बादल-बूँदी और जाड़े-पाले में इतनी रात गये उसका आना शंकाप्रद भी था। ज़रूर कोई-न-कोई बात हुई है।
बोला–ठंडी के मारे नींद भी आती है? तू इस जाड़े-पाले में कैसे आयी? कुसल तो है?
‘हाँ सब कुसल है।’
‘गोबर को भेजकर मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया।’
धनिया ने कोई उत्तर न दिया। मँड़ैया में आकर पुआल पर बैठती हुई बोली–गोबर ने तो मुँह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो। जिस बात को डरती थी, वह होकर रही।
‘क्या हुआ क्या? किसी से मार-पीट कर बैठा?’
‘अब मैं जानूँ, क्या कर बैठा, चलकर पूछो उसी राँड़ से?’
‘किस राँड़ से? क्या कहती है तू? बौरा तो नहीं गयी?’
‘हाँ, बौरा क्यों न जाऊँगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगुनी हो जाय।’ होरी के मन में प्रकाश की एक लम्बी रेखा ने प्रवेश किया।
‘साफ-साफ क्यों नहीं कहती। किस राँड़ को कह रही है?’
‘उसी झुनिया को, और किसको!’
‘तो झुनिया क्या यहाँ आयी है?’
‘और कहाँ जाती, पूछता कौन?’
‘गोबर क्या घर में नहीं है?’
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