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गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


‘ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार! आप इतनी दूर से आये, इस कड़ी धूप में शिकार किया, मैं कैसे उठा ले जाऊँ?

‘उठा उठा, देर न कर। मुझे मालूम हो गया तू भला आदमी है।’

लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रह कर मिर्ज़ाजी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहीं बिगड़ न जायँ, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा होकर बोला–मैं समझ गया मालिक, हजूर ने इसकी हलाली नहीं की।

मिर्ज़ाजी ने हँसकर कहा–बस-बस, तूने खूब समझा। अब उठा ले और घर चल।

मिर्ज़ाजी धर्म के इतने पाबन्द न थे। दस साल से उन्होंने नमाज न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिलकुल निराहार, निर्जल; मगर लकड़हारे को इस खयाल से जो सन्तोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया हैं उसे फीका न करना चाहते थे।

लकड़हारे ने हलके मन से हिरन को गरदन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक-तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते। कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है; लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आकर मिर्ज़ा से बोले–आप उधर कहाँ जा रहे हैं हजरत! क्या रास्ता भूल गए?

मिर्ज़ा ने अपराधी भाव से मुस्कराकर कहा–मैंने शिकार इस गरीब आदमी को दे दिया। अब जरा इसके घर चल रहा हूँ। आप भी आइए न।

तंखा ने मिर्ज़ा को कुतूहल की दृष्टि से देखा और बोले–आप अपने होश में हैं या नहीं।

‘कह नहीं सकता। मुझे खुद नहीं मालूम।’

‘शिकार इसे क्यों दे दिया?’

‘इसीलिए कि उसे पाकर इसे जितनी खुशी होगी, मुझे या आपको न होगी।’

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