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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


तीन पहर रात जा चुकी थी, हवा नींद से मतवाली होकर अंगड़ाइयाँ ले रही थी और दरख़्तों की आँख झपकती थीं। आकाश के दीपक भी झलमलाने लगे थे, दरबारी कभी दीवारों की तरफ़ ताकते थे, कभी छत की तरफ़। लेकिन कोई उपाय न सूझता था।

अचानक बाहर से आवाज़ आयी—युद्ध! युद्ध! सारा शहर इस बुलंद नारे से गूँज उठा। दीवारों ने अपनी ख़ामोश ज़बान से जवाब दिया—युद्ध! यद्ध!

यह अदृष्ट से आने वाली एक पुकार थी जिसने उस ठहराव में हरक़त पैदा कर दी थी। अब ठहरी हुई चीज़ों में ख़लबली-सी मच गयी। दरबारी गोया गफ़लत की नींद से चौंक पड़े। जैसे कोई भूली हुई बात याद आते ही उछल पड़े। युद्ध मंत्री सैयद असकरी ने फ़रमाया—क्या अब भी लोगों को लड़ाई का ऐलाल करने में हिचकिचाहट है? आम लोगों की ज़बान खुदा का हुक्म और उसकी पुकार अभी आपके कानों में आयी, उसको पूरा करना हमारा फ़र्ज है। हमने आज इस लम्बी बैठक में यह साबित किया है कि हम ज़बान के धनी हैं, पर ज़बान तलवार है, ढाल नहीं। हमें इस वक़्त ढाल की ज़रूरत है, आइये हम अपने सीनों को ढाल बना लें और साबित कर दें कि हममें अभी वह जौहर बाक़ी है जिसने हमारे बुजुर्गों का नाम रोशन किया। कौमी ग़ैरत ज़िन्दगी की रूह है। वह नफे और नुकसान से ऊपर है। वह हुण्डी और रोकड़, वसूल और बाक़ी, तेजी और मन्दी की पाबन्दियों से आज़ाद है। सारी खानों की छिपी हुई दौलत, सारी दुनिया की मण्डियाँ, सारी दुनिया के उद्योग-धंधे उसके पासंग हैं। उसे बचाइये वर्ना आपका यह सारा निजाम तितर-बितर हो जाएगा, शीराजा बिखर जाएगा, आप मिट जाएँगे। पैसे वालों से हमारा सवाल है—क्या अब भी आपको जंग के एलान में हिचकिचाहट है?

बाहर से सैकड़ों की आवाज़ें आयीं—जंग! जंग!

एक सेठ साहब ने फ़रमाया—आप जंग के लिए तैयार हैं?

असकरी—हमेशा से ज़्यादा।

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