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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


इन्हीं ख़यालों में डूबे हुए मंसूर को अपने वतन की याद आ जाती। घर का नक्शा आँखों के सामने खिंच जाता, मासूम बच्चे असकरी की प्यारी-प्यारी सूरत आँखों में फिर जाती, जिसे तक़दीर ने माँ के लाड़-प्यार से वंचित कर दिया था। तब मंसूर एक ठण्डी आह खींचकर खड़ा होता और अपने बेटे से मिलने की पागल इच्छा में उसका जी चाहता कि गंगा में कूदकर पार निकल जाऊँ।

धीरे-धीरे इस इच्छा ने इरादे की सूरत अख़्तियार की। गंगा उमड़ी हुई थी, ओर-छोर का कहीं पता न था। तेज और गरजती हुई लहरें दौड़ते हुए पहाड़ों के समान थीं। पाट देखकर सर में चक्कर-सा आ जाता था। मंसूर ने सोचा, नदी उतरने दूँ। लेकिन नदी उतरने के बदले भयानक रोग की तरह बढ़ती जाती थी, यहाँ तक कि मंसूर को फिर धीरज न रहा, एक दिन वह रात को उठा और उस पुरशोर लहरों से भरे हुए अँधेरे में कूद पड़ा।

मंसूर सारी रात लहरों के साथ लड़ता-भिड़ता रहा, जैसे कोई नन्ही-सी चिड़िया तूफ़ान में थपेड़े खा रही हो, कभी उनकी गोद में छिपा हुआ, कभी एक रेले में दस क़दम आगे, कभी एक धक्के में दस क़दम पीछे। ज़िन्दगी की लिखावट की ज़िन्दा मिसाल। जब वह नदी के पार हुआ तो एक बेजान लाश था, सिर्फ़ साँस बाक़ी थी और साँस के साथ मिलने की इच्छा।

इसके तीसरे दिन मंसूर विजयगढ़ जा पहुँचा। एक गोद में असकरी था और दूसरे हाथ में ग़रीबी का छोटा-सा एक बुकचा। वहाँ उसने अपना नाम मिर्ज़ा जलाल बताया। हुलिया भी बदल लिया था, हट्टा-कट्टा सजीला जवान था, चेहरे पर शराफ़त और कुशीलनता की कान्ति झलकती थी; नौकरी के लिए किसी और सिफ़ारिश की ज़रूरत न थी। सिपाहियों में दाख़िल हो गया और पाँच ही साल में अपनी ख़िदमतों और भरोसे की बदौलत मन्दौर के सरहदी पहाड़ी क़िले का सूबेदार बना दिया गया।

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