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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


शाम का सुहाना वक़्त था। सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा से सागर में धीरे-धीरे लहरें उठ रही थीं। बहादुर, क़िस्मत का धनी क़ासिम मुलतान के मोर्चे को सर करके गर्व की मादिरा पिये उसके नशे में चूर चला आता था। दिल्ली की सड़कें बन्दनवारों और झंडियों से सजी हुई थीं। गुलाब और केवड़े की खुशबू चारों तरफ़ उड़ रही थी। जगह-जगह नौबतखाने अपना सुहाना राग अलाप रहे थे। शहरपनाह के अन्दर दाख़िल होते ही सारे शहर में एक शोर मच गया। तोपों ने अगवानी की घनगरज सदाएँ बुलन्द कीं। ऊपर झरोखों में नगर की सुन्दरियाँ सितारों की तरह चमकने लगीं। कासिम पर फूलों की बरखा होने लगी। वह शाही महल के क़रीब पहुँचा तो बड़े-बड़े अमीर-उमरा उसकी अगवानी के लिए क़तार बाँधे खड़े थे। इस शान से वह दीवाने ख़ास तक पहुँचा। उसका दिमाग़ इस वक़्त सातवें आसमान पर था। चाव-भरी आँखों से ताकता हुआ बादशाह के पास पहुँचा और शाही तख़्त को चूम लिया। बादशाह मुस्काराकर तख़्त से उतरे और बांहें खोले हुए क़ासिम को सीने से लगाने के लिए बढ़े। क़ासिम आदर से उनके पैरों को चूमने के लिए झुका कि यकायक उसके सिर पर एक बिजली-सी गिरी। बादशाह का तेज खंजर उसकी गर्दन पर पड़ा और सर तन से जुदा होकर अलग जा गिरा। ख़ून के फ़ौव्वारे बादशाह के क़दमों की तरफ़, तख़्त की तरफ़ और तख़्त के पीछे खड़े होने वाले मसरूर की तरफ़ लपके, गोया कोई झल्लाया हुआ आग का साँप है।

घायल शरीर एक पल में ठंडा हो गया। मगर दोनों आँखे हसरत की मारी हुई दो मूरतों की तरह देर तक दीवारों की तरफ़ ताकती रहीं। आख़िर वह भी बन्द हो गयीं। हवस ने अपना काम पूरा कर दिया। अब सिर्फ़ हसरत बाक़ी थी। जो बरसों तक दीवाने ख़ास के दरोदीवार पर छायी रही और जिसकी झलक अभी तक क़ासिम के मजार पर घास-फूस की सूरत में नज़र आती है।

— ‘प्रेम बत्तीसी’ से

 

।।समाप्त।।


उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर कहानी में बहुत विस्तृत विशलेषण की गुंजायश नहीं होती। यहाँ हमारा उद्देश्य सम्पूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं, वरन् उसके चरित्र का अंग दिखाना है। यह परमावश्यक है कि हमारी कहानी से जो परिणाम या तत्त्व निकले वह सर्वमान्य हो, और उसमें कुछ बारीकी हो। यह एक साधारण नियम है कि हमें उसी बात में आनन्द आता है, जिससे हमारा कुछ सम्बन्ध हो। जुआ खेलनेवालों को जो उन्माद और उल्लास होता है, वह दर्शक को कदापि नहीं हो कहता। जब हमारे चरित्र इतने सजीव और आकर्षक होते हैं, कि पाठक अपने को उनके स्थान पर समझ लेता है तभी उसे कहानी में आनंद प्राप्त होता है। अगर लेखक ने अपने पात्रों के प्रति पाठक में यह सहानुभूति नहीं उत्पन्न कर दी तो वह अपने उद्देश्य में असफल है।

कथाक्रम

1. अलग्योझा
2. ईदगाह
3. माँ
4. बेटोंवाली विधवा
5. बड़े भाई साहब
6. शान्ति
7. नशा
8. स्वामिनी
9. ठाकुर का कुआँ
10. घरजमाई
11. पूस की रात
12. झाँकी
 

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