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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


पन्ना–अभी तो नहीं आया, आता ही होगा।

पन्ना समझ गयी कि जब तक वह खाना बनाकर लड़कों को न खिलायेगी और खुद न खायगी, रग्घू न खायगा। इतना ही नहीं, उसे रग्घू से लड़ाई करनी पड़ेगी, उसे जली-कटी सुनानी पड़ेगी, उसे यह दिखाना पड़ेगा कि मैं ही उससे अलग होना चाहती हूँ, नहीं तो वह इसी चिन्ता में घुल-घुलकर प्राण दे देगा। यह सोच कर उसने चूल्हा जलाया और खाना बनाने लगी। इतने में केदार और खुन्नू मदरसे से आ गये’ पन्ना ने कहा–आओ बेटा, खा लो, रोटी तैयार है।

केदार ने पूछा–भइया को भी बुला लूँ ना?

पन्ना–तुम आकर खा लो। उनकी रोटी बहू ने अलग बनायी है।

खुन्नू–जाकर भइया से पूछ न आऊँ?

पन्ना–जब उनका जी चाहेगा, खायँगे। तू बैठ कर खा, तुझे इन बातों से क्या मतलब। जिसका जी चाहेगा खाएगा, जिसका जी नहीं चाहेगा, न खायेगा। जब वह और उसकी बीबी अलग रहने पर तुले हैं, तो कौन मनाये?

केदार–तो क्यों अम्माँजी, क्या हम अलग घर में रहेंगे?

पन्ना–उनका जी चाहे, एक घर में रहें, जी चाहे आँगन में दीवार डाल लें।

खुन्नू ने दरवाजे पर आकर झाँका, सामने फूस की झोंपड़ी थी, वहीं खाट पर पड़ा रग्घू नारियल पी रहा था।

खुन्नू–भइया तो अभी नारियल लिये बैठे हैं।

पन्ना–जब जी करेगा, खायेंगे।

केदार–भइया ने भाभी को डाँटा नहीं?

मुलिया अपनी कोठरी में पड़ी सुन रही थी। बाहर आकर बोली–भइया ने तो नहीं डाँटा, अब तुम आ कर डाँटो।

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