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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


इस तरह तेरह दिन बीत गये। क्रिया कर्म से छुट्टी मिली। दूसरे ही दिन सबेरे मुलिया ने दोनों बालकों को गोद में उठाया और अनाज माँड़ने चली। खलिहान में पहुँचकर उसने एक को तो पेड़ के नीचे घास के नर्म बिस्तर पर सुला दिया और दूसरे को वहीं बैठा कर अनाज माँड़ने लगी। बैलों को हाँकती थी और रोती थी। क्या इसीलिए भगवान् ने उसको जन्म दिया था। देखते-देखते क्या से क्या हो गया? इन्हीं दिनों पिछले साल भी अनाज माँड़ा गया था। वह रग्घू के लिए लोटे में शरबत और मटर की घुँघनी लेकर आई थी। आज कोई उसके आगे है न पीछे! लेकिन किसी की लौंडी तो नहीं हूँ! उसे अलग होने का अब भी पछतावा न था।

एकाएक छोटे बच्चे का रोना सुन कर उसने उधर ताका, तो बड़ा लड़का उसे चुमकार रहा था–बैया तुप रहो। धीरे-धीरे उसके मुँह पर हाथ फेरता और चुप करने के लिए विकल था, जब बच्चा किसी तरह न चुप हुआ तो वह खुद उसके पास लेट गया और उसे छाती से लगा कर प्यार करने लगा; मगर जब यह प्रयत्न भी सफल न हुआ, तो वह रोने लगा।

उसी समय पन्ना दौड़ी आयी और छोटे बालक को गोद में उठा कर प्यार करती हुई बोली–लड़कों को मुझे क्यों न दे आयी बहू? हाय! हाय! हाय! बेचारा धरती पर पड़ा लोट रहा है। जब मैं मर जाऊँ तो जो चाहे करना, अभी तो जीती हूँ। अलग हो जाने से बच्चे तो नहीं अलग हो गये।

मुलिया ने कहा–तुम्हें भी तो छुट्टी नहीं थी अम्माँ, क्या करती।

पन्ना–तो तुझे यहाँ आने की ऐसी क्या जल्दी थी। डाँठ माँड़ न जाती। तीन-तीन लड़के तो हैं, और किस दिन काम आयँगे। केदार तो कल ही माँड़ने को कह रहा था; पर मैंने कहा–पहले ऊख में पानी दे लो, फिर अनाज माँड़ना। मँड़ाई तो दस दिन बाद भी हो सकती है, ऊँख की सिंचाई न हुई तो सूख जायगी। कल से पानी चढ़ा हुआ है, परसों तक खेत पुर जायेगा। तब मँड़ाई हो जायगी। तुझे विश्वास न आयेगा, जब से भैया मरे हैं, केदार को बड़ी चिन्ता हो गयी है। दिन में सौ-सौ बार पूछता है, भाभी बहुत रोती तो नहीं हैं?  देख, लड़के भूखे तो नहीं हैं। कोई लड़का रोता है, तो दौड़ा आता है, देख अम्माँ, क्या हुआ, बच्चा क्यों रोता है? कल रोकर बोला–अम्माँ, मैं जानता कि भैया इतनी जल्दी चले जायँगे; तो उनकी कुछ सेवा कर लेता। कहाँ जगाये-जगाये उठता था, अब देखती हो, पहर रात से काम में लग जाता है। खुन्नू कल जरा-सा बोला–पहले हम अपनी ऊँख में पानी दे लेंगे, तब भैया की ऊँख में देंगे। इस पर केदार ने ऐसा डाँटा कि खुन्नू के मुँह से फिर बात न निकली। बोला–कैसी तुम्हारी और कैसी हमारी ऊँख। भैया ने जिला न लिया होता, तो आज या तो मर गये होते या कहीं भीख माँगते होते। आज तुम बड़े ऊखवाले बने हो! यह उन्हीं का पुन परताप है कि आज भले आदमी बने बैठे हो। परसों रोटी खाने को बुलाने गयी, तो मँड़ैया में बैठा रो रहा था। पूछा–क्यों रोता है? तो बोला–अम्माँ, भैया इसी ‘अलग्योझे’ के दुख से मर गये, नहीं अभी उनकी उमिर ही क्या थी। यह उस वक्त न सूझा, नहीं उनसे क्यों बिगाड़ करते।

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