कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
एक रोज़ शाम के वक़्त चम्पा किसी काम से बाजार गई हुई थी और मगनदास हमेशा की तरह चारपाई पर पड़ा सपने देख रहा था कि रम्भा अद्भुत छटा के साथ आकर उसके सामने खडी हो गई। उसका भोला चेहरा कमल की तरह खिला हुआ था और आँखों से सहानुभूति का भाव झलक रहा था। मगनदास ने उसकी तरफ़ पहले आश्चर्य और फिर प्रेम की निगाहों से देखा और दिल पर ज़ोर डालकर बोला—आओ रम्भा, तुम्हें देखने को बहुत दिन से आँखें तरस रही थीं।
रम्भा ने भोलेपन से कहा—मैं यहाँ न आती तो तुम मुझसे कभी न बोलेते। मगनदास का हौसला बढ़ा, बोला—बिना मर्जी पाये तो कुत्ता भी नहीं आता।
रम्भा मुस्कराई, कली खिल गई—मैं तो आप ही चली आई।
मगनदास का कलेजा उछल पड़ा। उसने हिम्मत करके रम्भा का हाथ पकड़ लिया और भावावेश से काँपती हुई आवाज़ में बोला—नहीं रम्भा ऐसा नहीं है। यह मेरी महीनों की तपस्या का फल है।
मगनदास ने बेताब होकर उसे गले से लगा लिया। जब वह चलने लगी तो अपने प्रेमी की ओर प्रेम भरी दृष्टि से देखकर बोली—अब यह प्रीत हमको निभानी होगी।
पौ फटने के वक़्त जब सूर्य देवता के आगमन की तैयारियाँ हो रही थीं, मगनदास की आँख खुली। रम्भा आटा पीस रही थी। उस शांतिपूर्ण सन्नाटे में चक्की की घुमर–घुमर बहुत सुहानी मालूम होती थी और उससे सुर मिलाकर आपने प्यारे ढंग से गाती थी—
मैं जानूँ पिया मोको मनैहैं
उलटी मनावन मोको पड़ी
झुलनियाँ मोरी पानी में गिरी
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