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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


प्यारे,
मैं बहुत रो रही हूँ। मेरे पैर नहीं उठते, मगर मेरा जाना जरूरी है। तुम्हें जागाऊँगी तो तुम जाने न दोगे। आह कैसे जाऊँ अपने प्यारे पति को कैसे छोडूँ! किस्मत मुझसे यह आनन्द का घर छुड़वा रही है। मुझे बेवफ़ा न कहना, मैं तुमसे फिर कभी मिलूँगी। मैं जानती हूँ कि तुमने मेरे लिए यह सब कुछ त्याग दिया है। मगर तुम्हारे लिए ज़िन्दगी में बहुत कुछ उम्मीदें हैं। मैं अपनी मुहब्बत की धुन में तुम्हें उन उम्मीदों से क्यों दूर रक्खूँ! अब तुमसे जुदा होती हूँ। मेरी सुध मत भूलना। मैं तुम्हें हमेशा याद रखूँगीं। यह आनन्द के दिन कभी न भूलेंगे। क्या तुम मुझे भूल सकोगे?

तुम्हारी प्यारी
रम्भा


मगनदास को दिल्ली आए हुए तीन महीने ग़ुजर चुके हैं। इस बीच उसे सबसे बड़ा जो निजी अनुभव हुआ वह यह था कि रोज़ी की फ़िक्र और धन्धों की बहुतायत से उमड़ती हुई भावनाओं का जोर कम किया जा सकता है। ड़ेढ साल पहले का बेफ़िक्र नौजवान अब एक समझदार और सूझ-बूझ रखने वाला आदमी बन गया था। सागर घाट के उस कुछ दिनों के रहने से उसे रिआया की उन तकलीफ़ों का निजी ज्ञान हो गया, था जो कारिन्दों और मुख़्तारों की सख़्तियों की बदौलत उन्हें उठानी पड़ती हैं। उसने उसे रियासत के इन्तज़ाम में बहुत मदद दी और जो कर्मचारी दबी ज़बान से उसकी शिकायत करते थे और अपनी किस्मतों और ज़माने के उलटफेर को कोसते थे मगर रिआया खुश थी। हाँ, जब वह सब धंधों से फुरसत पाता तो एक भोली भाली सूरतवाली लड़की उसके ख़याल के पहलू में आ बैठती और थोड़ी देर के लिए सागर घाट का वह हरा-भरा झोंपड़ा और उसकी मस्तियाँ आँखों के सामने आ जातीं। सारी बातें एक सुहाने सपने की तरह याद आ-आकर उसके दिल को मसोसने लगतीं लेकिन कभी-कभी खुद बखुद-उसका ख़्याल इन्दिरा की तरफ़ भी जा पहुँचता। गो उसके दिल में रम्भा की वही जगह थी मगर किसी तरह उसमें इन्दिरा के लिए भी एक कोना निकल आया था। जिन हालातों और आफतों ने उसे इन्दिरा से बेज़ार कर दिया था वह अब रुख़सत हो गयी थीं। अब उसे इन्दिरा से कुछ हमदर्दी हो गयी थी। अगर उसके मिज़ाज में घमण्ड है, हुकूमत है, तकल्लुफ है, शान है तो यह उसका कसूर नहीं यह रईसजादों की आम कमज़ोरियाँ हैं। यही उनकी शिक्षा है। वे बिलकुल बेबस और मजबूर हैं। इन बदले हुए और संतुलित भावों के साथ जहाँ वह बेचैनी के साथ रम्भा की याद को ताज़ा किया करता था वहाँ इन्दिरा का स्वागत करने और उसे अपने दिल में जगह देने के लिए तैयार था। वह दिन दूर नहीं था जब उसे उस आजमाइश का सामना करना पड़ेगा। उसके कई आत्मीय अमीराना शान-शौकत के साथ इन्दिरा को विदा कराने के लिए नागपुर गए हुए थे। मगनदास की तबीयत आज तरह-तरह के भावों के कारण, जिनमें प्रतीक्षा और मिलन की उत्कंठा विशेष थी, उचाट-सी हो रही थी। जब कोई नौकर आता तो वह सम्हल बैठता कि शायद इन्दिरा आ पहुँची। आख़िर शाम के वक़्त जब दिन और रात गले मिले रहे थे, ज़नानखाने में ज़ोर-शारे के गाने की आवाज़ों ने बहू के पहुँचने की सूचना दी।

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