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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


दूसरे दिन दोनों दिल्ली से एक राष्ट्रीय समारोह में शरीक होने का बहाना करके रवाना हो गए और सागर घाट जा पहुँचे। वह झोंपड़ा, वह मुहब्बत का मन्दिर, यह प्रेम-भवन फूल और हरियाली से लहरा रहा था। चम्पा मालिन उन्हें वहाँ मिली। गाँव के जमींदार उनसे मिलने के लिए आये, कई दिन तक फिर मगनसिंह को घोड़े निकालने पड़े। रम्भा कुएँ से पानी लाती, खाना पकाती, फिर चक्की पीसती और गाती। गाँव की औरतें फिर उससे अपने कुर्ते और बच्चों की लेसदार टोपियाँ सिलातीं। हाँ, इतना ज़रूर कहती कि उसका रंग कैसा निखर आया है, हाथ-पाँव कैसे मुलायम पड़ गये हैं किसी बड़े घर की रानी मालूम होती है। मगर स्वभाव वही है, वही मीठी बोली है। वही मुरौवत, वही हँसमुख चेहरा। इस तरह एक हफ़्ते इस सरल और पवित्र जीवन का आनन्द उठाने के बाद दोनों दिल्ली वापस आये और अब दस साल गुज़रने पर भी साल में एक बार उस झोपड़े के नसीब जागते हैं। वह मुहब्बत की दीवार अभी तक उन दोनों प्रेमियों को अपनी छाया में आराम देने के लिए खड़ी है।

—ज़माना , जनवरी १९१३
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