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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


तब सरदारी फ़ौज और अफसर सब के सब लूट के माल पर टूटे और मसऊद ज़ख़्मों से चूर और खून में रंगा हुआ अपने कुछ जान पर खेलनेवाले दोस्तों के साथ मस्क़ात के क़िले की तरफ़ लौटा मगर जब होश ने आँखें खोलीं और हवास ठिकाने हुआ तो क्या देखता है कि मैं एक सजे हुए कमरे में मखमली गद्दे पर लेटा हुआ हूँ फूलों की सुहानी महक और लम्बी छरहरी सुन्दरियों के जमघट से कमरा चमन बना हुआ था। ताज्जुब से इधर-उधर ताकने लगा कि इतने में एक अप्सरा-जैसी सुन्दर युवती तश्त में फूलों का हार लिए धीरे-धीरे आती हुई दिखायी दी कि जैसे बहार फूलों की डाली पेश करने आ रही है। उसे देखते उन लंबी छरहरी सुन्दरियों ने आँखें बिछायीं और उसकी हिनाई हथेली को चूमा। मसऊद देखते ही पहचान गया। यह मलिका शेर अफ़गन थी।

मलिका ने फूलों का हार मसऊद के गले में डाला। हीरे-जवाहरात उस पर चढ़ाये और सोने के तारों से टकी हुई मसनद पर बड़ी आन-बान से बैठ गयी। साजिन्दों ने बीन ले-लेकर विजयी अतिथि के स्वागत में सुहाने राग अलापने शुरू किये।

यहाँ तो नाच-गाने की महफिल थी उधर आपसी डाह ने नये-नये शिगूफ़े खिलाये। सरदार से शिकायत की कि मसऊद ज़रूर दुश्मन से जा मिला है और आज जान बूझकर फ़ौज का एक दस्ता लेकर लड़ने को गया था ताकि उसे ख़ाक और खून में सुलाकर सरकारी फ़ौज को बेचिराग कर दे। इसके सबूत में कुछ जाली खत भी दिखाये और इस कमीनी कोशिश में जबान की ऐसा चालाकी से काम लिया कि आख़िर सरदार को इन बातों पर यक़ीन आ गया पौ फटे जब मसऊद मलिका शेर अफ़गान के दरबार से विजय का हार गले में डाले सरदार को बधाई देने गया तो बजाय इसके कि कद्रदानी का सिरोपाव और बहादुरी का तमग़ा पाये उसको खरी-खोटी बातों के तीर का निशाना बनाया गया और उसे हुक्म मिला कि तलवार कमर से खोल कर रख दे।

मसऊद स्तम्भित रह गया। यह तेगा मैंने अपने बाप से विरसे में पाया है। और यह मेरे पिछले बड़प्पन की आख़िरी यादगार है। यह मेरी बाँहों की ताक़त और मेरी सहयोगी और मददगार है। इसके साथ कैसी-कैसी स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं, क्या मैं जीते जी इसे अपने पहलू से अलग कर दूँ? अगर मुझपर कोई आदमी लड़ाई के मैदान से क़दम हटाने का इल्ज़ाम लगा सकता, अगर कोई शक्स इस तेग़े का इस्तेमाल मेरे मुकाबिले में ज़्यादा कारगुजारी के साथ कर सकता, अगर मेरी बाँहों में तेग़ा पकड़ने की ताक़त न होती तो खुदा की क़सम, मैं खुद ही तेग़ा कमर से खोलकर रख देता। मगर खुदा का शुक्र है कि मैं इन इलज़ामों से बरी हूँ। फिर क्यों मैं इसे हाथ से जाने दूँ? क्या इसलिए कि मेरी बुराई चाहने वाले कुछ थोड़े से डाहियों ने सरदार नमकख़ोर का मन मेरी तरफ़ से फेर दिया है। ऐसा नहीं हो सकता।

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