कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
अमृत
मेरी उठती जवानी थी जब मेरा दिल दर्द के मज़े से परिचित हुआ। कुछ दिनों तक शायरी का अभ्यास करता रहा और धीर-धीरे इस शौक़ ने तल्लीनता का रुप ले लिया। सांसारिक संबंधों से मुंह मोड़कर अपनी शायरी की दुनिया में आ बैठा और तीन ही साल की मश्क़ ने मेरी कल्पना के जौहर खोल दिये। कभी-कभी मेरी शायरी उस्तादों के मशहूर कलाम से टक्कर खा जाती थी। मेरे क़लम ने किसी उस्ताद के सामने सर नहीं झुकाया। मेरी कल्पना एक अपने-आप बढ़नेवाले पौधे की तरह छंद और पिंगल की क़ैदों से आजाद बढ़ती रही और मेरे कलाम का ढंग बिलकुल निराला था। मैंने अपनी शायरी को फारस से बाहर निकालकर योरोप तक पहुँचा दिया। यह मेरा अपना रंग था। इस मैदान में न मेरा कोई प्रतिद्वंद्वी था, न बराबरी करने वाला। बावजूद इस शायरों जैसी तल्लीनता के मुझे मुशायरों की वाह-वाह और सुभानअल्लाह से नफ़रत थी। हाँ, काव्य-रसिकों से बिना अपना नाम बताये हुए अक्सर अपनी शायरी की अच्छाइयों और बुराइयों पर बहस किया करता। गो मुझे शायरी का दावा न था मगर धीरे-धीरे मेरी शोहरत होने लगी और जब मेरी मसनवी ‘दुनियाए हुस्न’ प्रकाशित हुई तो साहित्य की दुनिया में हलचल-सी मच गयी। पुराने शायरों ने काव्य-मर्मज्ञों की प्रशंसा-कृपणता में पोथे के पोथे रंग दिये हैं मगर मेरा अनुभव इसके बिलकुल विपरीत था। मुझे कभी-कभी यह ख़याल सताया करता कि मेरे क़द्रदानों की यह उदारता दूसरे कवियों की लेखनी की दरिद्रता का प्रमाण है। यह ख़याल हौसला तोड़ने वाला था। बहरहाल, जो कुछ हुआ, ‘दुनियाए हुस्न’ ने मुझे शायरी का बादशाह बना दिया। मेरा नाम हरेक ज़बान पर था। मेरी चर्चा हर एक अख़बार में थी। शोहरत अपने साथ दौलत भी लायी। मुझे दिन-रात शेरो-शायरी के अलावा और कोई काम न था। अक्सर बैठे-बैठे रातें गुजर जातीं और जब कोई चुभता हुआ शेर क़लम से निकल जाता तो मैं खुशी के मारे उछल पड़ता। मैं अब तक शादी-ब्याह की क़ैंदों से आज़ाद था या यों कहिए कि मैं उसके उन मज़ों से अपरिचित था जिनमें रंज की तल्ख़ी भी है और खुशी की नमकीनी भी। अक्सर पश्चिमी साहित्यकारों की तरह मेरा भी ख़्याल था कि साहित्य के उन्माद और सौन्दर्य के उन्माद में पुराना बैर है। मुझे अपनी ज़बान से कहते हुए शर्मिन्दा होना पड़ता है कि मुझे अपनी तबीयत पर भरोसा न था। जब कभी मेरी आँखों में कोई मोहिनी सूरत खुब जाती तो मेरे दिल-दिमाग पर एक पागलपन-सा छा जाता। हफ़्तों तक अपने को भूला हुआ-सा रहता। लिखने की तरफ़ तबीयत किसी तरह न झुकती। ऐसे कमज़ोर दिल में सिर्फ़ एक इश्क की जगह थी। इसी डर से मैं अपनी रंगीन तबियत के खिलाफ़ आचरण शुद्ध रखने पर मजबूर था। कमल की एक पंखुड़ी, श्यामा के एक गीत, लहलहाते हुए एक मैदान में मेरे लिए जादू का-सा आकर्षण था मगर किसी औरत के दिलफ़रेब हुस्न को मैं चित्रकार या मूर्तिकार की बेलौस आँखों से नहीं देख सकता था। सुंदर स्त्री मेरे लिए एक रंगीन, क़ातिल नागिन थी जिसे देखकर आँखें खुश होती हैं मगर दिल डर से सिमट जाता है।
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