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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


अब मौक़ा था कि मसऊद अपना जोगिया भेस उतार फेंके और ताजोतख़्त का दावा पेश करे। मगर जब उसने देखा कि मलिका शेर अफ़गान का नाम हर आदमी की ज़बान पर है तो खामोश हो रहा है। वह खूब जानता था कि अगर मैं अपने दावे को साबित कर दूँ तो मलिका का दावा खत्म हो जायगा। मगर तब भी यह नामुमकिन था कि सख्त मारकाट के बिना यह फैसला हो सके। एक पुरजोश और आरजू मन्द दिल के लिए इस हद तक जब्त करना मामूली बात न थी। जबसे उसने होश संभाला, यह ख्याल कि मैं इस मुल्क़ का बादशाह हूँ, उसके रगरेशे में घुल गया था। शाह बामुराद की वसीयत उसे एकदम को भी न भूलती थी। दिन को वह बादशाह के मनसूबे बाँधता और रात को बादशाहत के सपने देखता। यह यक़ीन कि मैं बादशाह हूँ, उसे बादशाह बनाये हुए था। अफ़सोस, आज वह मंसूबे टूट गये और वह सपना तितर-बितर हो गया। मगर मसऊद के चरित्र में मर्दाना जब्त अपनी हद पर पहुँच गया था। उसने उफ़ तक न की, एक ठंडी आह भी न भरी, बल्कि पहला आदमी जिसने मलिका के हाथों को चूमा और उसके सामने सर झुकाया, वह फ़क़ीर मख़मूर था। हाँ, ठीक उस वक़्त जब कि वह मलिका के हाथ को चूम रहा था, उसकी ज़िन्दगी भर की लालसाएँ आँसू की एक बूँद बनकर मलिका की मेंहँदी-रची हथेली पर गिर पड़ी कि जैसे मसऊद ने अपनी लालसा का पोती मलिका को सौंप दिया। मलिका ने हाथ खींच लिया और फ़कीर मख़मूर के चेहरे पर मुहब्बत से भरी हुई निगाह डाली। जब सल्तनत के सब दरबारी भेंट दे चुके, तोपों की सलामियाँ दगने लगीं, शहर में धूमधाम का बाजार गर्म हो गया और खुशियों के जलसे चारों तरफ़ नजर आने लगे।

राजगद्दी के तीसरे दिन मसऊद खुदा की इबादत में बैठा हुआ था कि मलिका शेर अफ़गन अकेले उसके पास आयी और बोली—मसऊद, मैं एक नाचीज़ तोहफ़ा तुम्हारे लिए लायी हूँ और वह मेरा दिल है। क्या तुम उसे मेरे हाथ से कुबूल करोगे? मसऊद अचम्भे से ताकता रह गया, मगर जब मलिका की आँखें मुहब्बत के नशे में डूबी हुई पायीं तो चाव के मारे उठा और उसे सीने से लगाकर बोला—मैं तो मुद्दत से तुम्हारी बर्छी की नोक का घायल हूँ, मेरी क़िस्मत है कि आज तुम मरहम रखने आयी हो।

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