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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


यह सोचते-सोचते मलका रोने लगी कि यकायक उसने देखा, सामने एक खिले हुए मुखड़े वाला गम्भीर पुरुष सादे कपड़े पहने खड़ा है। मलका ने आश्चर्यचकित होकर पूछा—आप कौन हैं? यहाँ मैंने आपको कभी नहीं देखा।

पुरुष—हाँ, इस क़ैदखाने में मैं बहुत कम आता हूँ। मेरा काम है कि जब क़ैदियों की तबियत यहाँ से बेजार हो तो उन्हें यहाँ से निकलने में मदद दूँ।

मलका—आपका नाम?

पुरुष—संतोखसिंह।

मलका—आप मुझे इस क़ैद से छुटकारा दिला सकते हैं?

संतोख—हाँ, मेरा तो काम ही यह है, लेकिन मेरी हिदायतों पर चलना पड़ेगा।

मलका—मैं आपके हुक्म से जौ-भर भी इधर-उधर न करूँगी, खुदा के लिए मुझे यहाँ से जल्द से जल्द ले चलिए, मैं मरते दम तक आपकी शुक्रगुज़ार रहूँगी।

संतोख—आप कहाँ चलना चाहती हैं?

मलका—मैं शाह मसरूर के पास जाना चाहती हूँ। आपको मालूम है वह आजकल कहाँ हैं?

संतोख—हाँ, मालूम है, मैं उनका नौकर हूँ। उन्हीं की तरफ़ से मैं इस काम पर तैनात हूँ?

मलका—तो खुदा के वास्ते मुझे जल्द ले चलिए, मुझे अब यहाँ एक घड़ी रहना जी पर भारी हो रहा है।

संतोख—अच्छा तो यह रेशमी कपड़े और यह जवाहरात और सोने के जेवर उतारकर फेंक दो। बुलहवस ने इन्हीं जंजीरों से तुम्हें जकड़ दिया है। मोटे से मोटा कपड़ा जो मिल सके पहन लो। इन मिट्टी के घरौंदों को गिरा दो। इतर और गुलाब की शीशियाँ, साबुन की बट्टियाँ, और यह पाउडर के डब्बे सब फेंक दो।

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