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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


जब इन कामों से फुर्सत हुई तो मलका ने संतोखसिंह से कहा—मेरे पास अलफ़ाज नहीं हैं, और न अलफ़ाज में इतनी ताक़त है कि मैं आपके एहसानों का शुक्रिया अदा कर सकूँ। आपने मुझे गुलामी से छुटकारा दिया। मैं आख़िरी दम तक आपका जस गाऊँगी। अब शाह मसरूर के पास मुझे ले चलिए, मैं उनकी सेवा करके अपनी उम्र बसर करना चाहती हूँ। उनसे मुँह मोड़कर मैंने बहुत ज़िल्लत और मुसीबत झेली। अब कभी उनके कदमों से जु़दा न हूँगी।

संतोखसिंह—हाँ, हाँ, चलिए मैं तैयार हूँ लेकिन मंजिल सख़्त है, घबराना मत।

मलका ने हवाई जहाज मँगाया। पर संतोखसिंह ने कहा—वहाँ हवाई जहाज़ का गुजर नहीं है, पैदल चलना पड़ेगा। मलका ने मजबूर होकर जहाज़ वापस कर दिया और अकेले अपने स्वामी को मनाने चली।

वह दिन-भर भूखी-प्यासी पैदल चलती रही। आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा, प्यास से गले में काँटे पड़ने लगे। काँटों से पैर छलनी हो गये। उसने अपने मार्ग-दर्शक से पूछा—अभी कितनी दूर है?

संतोख—अभी बहुत दूर है। चुपचाप चली आओ। यहाँ बातें करने से मंजिल खोटी हो जाती है।

रात हुई, आसमान पर बादल छा गये। सामने एक नदी पड़ी, किश्ती का पता न था। मलका ने पूछा—किश्ती कहाँ है?

संतोष ने कहा—नदी में चलना पड़ेगा, यहाँ किश्ती कहाँ है।

मलका को डर मालूम हुआ लेकिन वह जान पर खेलकर दरिया में चल पड़ी। मालूम हुआ कि सिर्फ़ आँख का धोखा था। वह रेतीली ज़मीन थी। सारी रात संतोखसिंह ने एक क्षण के लिए भी दम न लिया। जब भोर का तारा निकल आया तो मलका ने रोकर कहा—अभी कितनी दूर है, मैं तो मरी जाती हूँ।

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