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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


आह! क्या मैं इसी लड़की के साथ ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर हूँगा?….इस सवाल ने मेरे उन तमाम हवाई क़िलों को ढा दिया जो मैंने अभी-अभी बनाये थे। क्या मैं मिस लीला से हमेशा के लिए हाथ धो लूँ? नामुमकिन है। मैं कुमुदिनी को छोड़ दूँगा, मैं अपने घरवालों से नाता तोड़ लूँगा, मैं बदनाम हूँगा, परेशान हूँगा, मगर मिस लीला को ज़रूर अपना बनाऊँगा। इन्हीं खयालों के असर में मैंने अपनी डायरी लिखी और उसे मेज़ पर ख़ुलासा छोड़कर बिस्तर पर लेटा रहा और सोचते-सोचते सो गया।

सबेरे उठकर देखता हूँ तो बाबू निरंजनदास मेरे सामने कुर्सी पर बैठे हैं। उनके हाथ में डायरी थी जिसे वह ध्यानपूर्वक पढ़ रहे थे। उन्हें देखते ही मैं बड़े चाव से लिपट गया। अफ़सोस, अब उस देवोपम स्वभाववाले नौजवान की सूरत देखनी न नसीब होगी। अचानक मौत ने उसे हमेशा के लिए हमसे अलग कर दिया। कुमुदिनी के सगे भाई थे, बहुत स्वस्थ, सुन्दर और हँसमुख, उम्र मुझसे दो ही चार साल ज़्यादा थी, ऊँचे पद पर नियुक्त थे, कुछ दिनों से इसी शहर में तबदील होकर आ गये थे। मेरी और उनकी गाढ़ी दोस्ती हो गयी थी। मैंने पूछा—क्या तुमने मेरी डायरी पढ़ ली?

निरंजन—हाँ।

मैं—मगर कुमुदिनी से कुछ न कहना।

निरंजन—बहुत अच्छा, न कहूँगा।

मैं—इस वक़्त किसी सोच में हो। मेरा डिप्लोमा देखा?

निरंजन—घर से ख़त आया है, पिताजी बीमार हैं, दो-तीन दिन में जाने वाला हूँ।

मैं—शौक़ से जाइए, ईश्वर उन्हें जल्द स्वस्थ करे।

निरंजन’—तुम भी चलोगे? न मालूम कैसा पड़े, कैसा न पड़े।

मैं—मुझे तो इस वक़्त माफ़ कर दो।

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