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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


नौजवान—तीन महीने के क़रीब होता है।

मैं—आपका शुभ नाम।

नौजवान—मुझे मेहर सिंह कहते हैं।

मैं बैठ गया और बहुत गुस्ताख़ाना बेतक़ल्लुफ़ी से मेहर सिंह का हाथ पकड़कर बिठा दिया और फिर माफ़ी माँगी। उस वक़्त की बातचीत से मालूम हुआ कि वह पंजाब का रहने वाला है और यहाँ पढ़ने के लिए आया हुआ है। शायद डाक्टरों ने सलाह दी थी कि पंजाब की आबहवा उसके लिए ठीक नहीं है। मैं दिल में तो झेंपा कि एक स्कूल के लड़के के साथ बैठकर ऐसी बेतकल्लुफ़ी से बातें कर रहा हूँ, मगर संगीत के प्रेम ने इस ख़याल को रहने न दिया। रस्मी परिचय के बाद मैंने फिर प्रार्थना की कि वह चीज़ छेड़िये। मेहर सिंह ने आँखें नीचे करके जवाब दिया कि मैं अभी बिलकुल नौसिखिया हूँ।

मैं—यह तो आप अपनी ज़बान से कहिये।

मेहर सिंह—(झेंपकर) आप कुछ फ़रमायें, हारमोनियम हाज़िर है।

मैं—मैं इस फ़न में बिलकुल कोरा हूँ वर्ना आपकी फ़रमाइश ज़रूर पूरी करता।

इसके बाद मैंने बहुत-बहुत आग्रह किया मगर मेहर सिंह झेंपता ही रहा। मुझे स्वभावतः शिष्टाचार से घृणा है। हालांकि इस वक़्त मुझे रूखा होने का कोई हक़ न था मगर जब मैंने देखा कि यह किसी तरह न मानेगा तो जरा रुखाई से बोला—खैर जाने दीजिए। मुझे अफ़सोस है कि मैंने आपका बहुत वक़्त बर्बाद किया। माफ़ कीजिए। यह कहकर उठ खड़ा हुआ। मेरी रोनी सूरत देखकर शायद मेहर सिंह को उस वक़्त तरस आ गया, उसने झेंपते हुए मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला—आप तो नाराज़ हुए जाते हैं।

मैं—मुझे आपसे नाराज़ होने का कोई हक़ हासिल नहीं।

मेहर सिंह—अच्छा बैठ जाइए, मैं आपकी फ़रमाइश पूरी करूँगा। मगर मैं अभी बिलकुल अनाड़ी हूँ।

मैं बैठ गया और मेहर सिंह ने हारमोनियम पर वही गीत अलापना शुरू किया—

पिया मिलन है कठिन बावरी।

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