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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


इस वाक़ये के बाद बहुत दिन गु़ज़र गये। जोज़ेफ़ मैज़िनी फिर इटली पहुँचा और रोम में पहली बार जनता के राज्य का एलान किया गया। तीन आदमी राज्य की व्यवस्था के लिए निर्वाचित किये गये। मैज़िनी भी उनमें एक था। मगर थोड़े ही दिनों में फ्रांस की ज़्यादतियों और पीडमाण्ट के बादशाह की दग़ाबाजियों की बदौलत इस जनता के राज का ख़ात्मा हो गया और उसके कर्मचारी और मन्त्री अपनी जानें लेकर भाग निकले। मैज़िनी अपने विश्वसनीय मित्रों की दग़ाबाजी और मौक़ा-परस्ती पर पेचोताब खाता हुआ ख़स्ताहाल और परेशान रोम की गलियों की ख़ाक छानता फिरता था। उसका यह सपना कि रोम को मैं ज़रूर एक दिन जनता के राज का केन्द्र बनाकर छोड़ूँगा, पूरा होकर फिर तितर-बितर हो गया।

दोपहर का वक़्त था, धूप से परेशान होकर वह एक पेड़ की छाया में ज़रा दम लेने के लिए ठहर गया कि सामने से एक लेडी आती हुई दिखाई दी। उसका चेहरा पीला था, कपड़े बिलकुल सफ़ेद और सादा, उम्र तीस साल से ज़्यादा। मैज़िनी आत्म-विस्मृति की दशा में था कि यह स्त्री प्रेम से व्यग्र होकर उसके गले लिपट गयी। मैज़िनी ने चौंककर देखा, बोला—प्यारी मैग्डलीन, तुम हो! यह कहते-कहते उसकी आँखें भीग गयीं। मैग्डलीन ने रोकर कहा—जोज़ेफ़! और मुँह से कुछ न निकला।

दोनों ख़ामोश कई मिनट तक रोते रहे। आख़िर मैज़िनी बोला—तुम यहाँ कब आयीं, मेगा?

मैग्डलीन—मैं यहाँ कई महीने से हूँ।, मगर तुमसे मिलने की कोई सूरत नहीं निकलती थी। तुम्हें काम-काज में डूबा हुआ देखकर और यह समझकर कि अब तुम्हें मुझ जैसी औरत की हमदर्दी की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही, तुमसे मिलने की कोई ज़रूरत न देखती थी। (रुककर) क्यों जोज़ेफ़, यह क्या कारण है कि अक्सर लोग तुम्हारी बुराई किया करते हैं? क्या वह अंधे हैं, क्या भगवान ने उन्हें आँखें नहीं दीं?

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