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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


वृन्दा कुछ देर इस ख़याल में डूबी बैठी रही, फिर वह उठी और धीरे-धीरे प्रेमसिंह के दरवाज़े पर आयी। दरवाज़ा खुला हुआ था मगर वह अन्दर क़दम न रख सकी। उसने दरोदीवार को हसरतभरी निगाहों से देखा और फिर जंगल की तरफ़ चली गयी।

शहर लाहौर के एक शानदार हिस्से में ठीक सड़क के किनारे एक अच्छा सा साफ़-सुथरा तिमंज़िला मकान है। हरी-भरी और सुन्दर फूलोंवाली माधवी लता ने उसकी दीवारों और मेहराबों को ख़ूब सजा दिया है। इसी मकान में एक अमीराना ठाट-बाट से सजे हुए कमरे के अन्दर वृन्दा एक मखमली क़ालीन पर बैठी हुई अपनी सुंदर रंगों और मीठी आवाज़ वाली मैना को पढ़ा रही है। कमरे की दीवारों पर हलके हरे रंग की क़लई है—खुशनुमा दीवारगीरियाँ, ख़ूबसूरत तसवीरें उचित स्थानों पर शोभा दे रही हैं। सन्दल और खस की प्राणवर्द्धक सुगन्ध कमरे में फैली हुई है। एक बूढ़ी औरत बैठी हुई पंखा झल रही है। मगर इस ऐश्वर्य और विलास की सब सामग्रियों के होते हुए वृन्दा का चेहरा उदास है। उसका चेहरा अब और भी पीला नज़र आता है। मौलश्री का फूल मुरझा गया है।

वृन्दा अब लाहौर की मशहूर गानेवालियों में से है। उसे इस शहर में आये तीन महीने से ज़्यादा नहीं हुए, मगर इतने ही दिनों में उसने बहुत बड़ी शोहरत हासिल कर ली है। यहाँ उसका नाम श्यामा मशहूर है। इतने बड़े शहर में जिससे श्यामा बाई का पता पूछो वह यक़ीनन बता देगा। श्यामा की आवाज़ और अन्दाज़ में कोई मोहिनी है, जिसने शहर में हर एक को अपना प्रेमी बना रक्खा है। लाहौर में बाकमाल गानेवालियों की कमी नहीं है। लाहौर उस जमाने में हर कला का केन्द्र था मगर कोयलें और बुलबुलें बहुत थीं, श्यामा सिर्फ़ एक ही थी। वह ध्रुपद ज़्यादा गाती थी इसलिए लोग उसे ध्रुपदी श्यामा कहते थे।

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