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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘हाँ, जीते जी कभी नहीं।’

‘अब मुझे इत्मीनान हो गया, सन्तरी। लुईसा तुम्हारी इस नेकी और एहसान को मौत की गोद में जाते वक़्त भी न भूलेगी। तुम जहाँ रहोगे तुम्हारी यह बहन तुम्हारे लिए भगवान से प्रार्थना करती रहेगी। जिस वक़्त तुम्हें कभी ज़रूरत हो, मेरी याद करना। लुईसा दुनिया के उस पर्दे पर होगी तब भी तुम्हारी खिदमत के लिए हाज़िर होगी। वह आज से तुम्हें अपना भाई समझती है। सिपाही की जिन्दगी में ऐसे मौके आते हैं, जब उसे एक खिदमत करने वाली बहन की ज़रूरत होती है। भगवान न करे तुम्हारी ज़िन्दगी में ऐसा मौका आये लेकिन अगर आये तो लुईसा अना फर्ज अदा करने में कभी पीछे न रहेगी। क्या मैं अपने नेकमिजाज़ भाई का नाम पूछ सकती हूँ?’

बिजली एक बार चमक उठी। मैंने देखा लुईसा की आँखों में आँसू भरे हुए हैं। बोला– लुईसा, इन हौसला बढ़ाने वाली बातों के लिए मैं तुम्हारा हृदय से कृतज्ञ हूँ। लेकिन मैं जो कुछ कर रहा हूँ, वह नैतिकता और हमदर्दी के नाते कर रहा हूँ। किसी इनाम की मुझे इच्छा नहीं है। मेरा नाम पूछकर क्या करोगी?

लुईसा ने शिकायत के स्वर में कहा– क्या बहन के लिए भाई का नाम पूछना भी फ़ौजी क़ानून के खिलाफ़ है?

इन शब्दों में कुछ ऐसी सच्चाई, कुछ ऐस प्रेम, कुछ ऐसा अपनापन भरा हुआ था, कि मेरी आँखों में बरबस आँसू भर आये।

बोला– नहीं लुईसा, मैं तो सिर्फ़ यही चाहता हूँ कि इस भाई जैसे सलूक में स्वार्थ की छाया भी न रहने पाये। मेरा नाम श्रीनाथ सिंह है।

लुईसा ने कृतज्ञता व्यक्त करने के तौर पर मेरा हाथ धीरे से दबाया और थैंक्स कहकर चली गई। अंधेरे के कारण बिल्कुल नज़र न आया कि वह कहाँ गई और न पूछना ही उचित था। मैं वहीं खड़ा-खड़ा इस अचानक मुलाकात के पहलुओं को सोचता रहा। कमाण्डिंग अफसर की बेटी क्या एक मामूली सिपाही को और वह भी जो काला आदमी हो, कुत्ते से बदतर नहीं समझती? मगर वही औरत आज मेरे साथ भाई का रिश्ता कायम करके फूली नहीं समाती थी।

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