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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


सहसा मुलसमानों का एक दल लाठियां लिये हुए आ पहुँचा, और मंदिर पर पत्थर बरसाना शुरू किया। शोर मच गया– पत्थर कहाँ से आते हैं! ये पत्थर कौन फेंक रहा है! कुछ लोग मंदिर के बाहर निकलकर देखने लगे। मुसलमान लोग तो घात में बैठे ही थे, लाठियाँ जमानी शुरू कीं। हिन्दुओं के हाथ में उस समय ढोल-मंजीरे के सिवा और क्या था। कोई मंदिर में आ छिपा, कोई किसी दूसरी तरफ़ भागा। चारों तरफ़ शोर मच गया।

चौधरी साहब को भी ख़बर हुई। भजनसिंह से बोले– ठाकुर, देखो तो क्या शोर-गुल है? जाकर बदमाशों को समझा दो और न माने तो दो-चार हाथ चला भी देना मगर खून-खच्चर न होने पाये।

ठाकुर यह शोर-गुल सुन-सुनकर दाँत पीस रहे थे, दिल पर पत्थर की सिल रक्खे बैठे थे। यह आदेश सुना तो मुँहमाँगी मुराद पायी। शत्रु-भंजन डंडा कंधे पर रक्खा और लपके हुए मंदिर पहुँचे। वहाँ मुसलमानों ने घोर उपद्रव मचा रक्खा था। कई आदमियों का पीछा करते हुए मंदिर में घुस गये थे, और शीशे के सामान तोड़-फोड़ रहे थे।

ठाकुर की आँखों में ख़ून उतर आया, सिर पर ख़ून सवार हो गया। ललकारते हुए मंदिर में घुस गया और बदमाशों को पीटना शुरू किया, एक तरफ़ तो वह अकेला और दूसरी तरफ़ पचासों आदमी! लेकिन वाह रे शेर! अकेले सबके छक्के छुड़ा दिये, कई आदमियों को मार गिराया। गुस्से में उसे इस वक़्त कुछ न सूझता था, किसी के मरने-जीने की परवा न थी। मालूम नहीं, उसमें इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी थी। उसे ऐसा जान पड़ता था कि कोई दैवी शक्ति मेरी मदद कर रही है। कृष्ण भगवान् स्वयं उसकी रक्षा करते हुए मालूम होते थे। धर्म-संग्राम में मनुष्यों से अलौकिक काम हो जाते हैं।

उधर ठाकुर के चले आने के बाद चौधरी साहब को भय हुआ कि कहीं ठाकुर किसी का ख़ून न कर डाले, उसके पीछे खुद भी मंदिर में आ पहुँचे। देखा तो कुहराम मचा हुआ हैं। बदमाश लोग अपनी जान ले-लेकर बेतहाशा भागे जा रहे हैं, कोई पड़ा कराह रहा है, कोई हाय-हाय कर रहा है। ठाकुर को पुकारना ही चाहते थे कि सहसा एक आदमी भागा हुआ आया और उनके सामने आता-आता ज़मीन पर गिर पड़ा। चौधरी साहब ने उसे पहचान लिया और दुनिया आँखों में अंधेरी हो गयी। यह उनका इकलौता दामाद और उनकी जायदाद का वारिस शाहिद हुसेन था!

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