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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


ठाकुर– नहीं हजूर, अपनी जान के खौफ़ से।

चौधरी साहब ने यह ख़बर सुनी, तो सन्नाटे में आ गये। अब क्या हो? अगर मुकदमे की पैरवी न की गयी तो ठाकुर का बचना मुश्किल है। पैरवी करते हैं, तो इसलामी दुनिया में तहलका पड़ जाता है। चारों तरफ़ से फतवे निकलने लगेंगे। उधर मुसलमानों ने ठान ली कि इसे फांसी दिलाकर ही छोड़ेंगे। आपस में चंदा किया गया। मुल्लाओं ने मसजिद में चंदे की अपील की, द्वार-द्वार झोली बाँधकर घूमे। इस पर कौमी मुक़दमे का रंग चढ़ाया गया। मुसलमान वकीलों को नाम लूटने का मौका मिला। आसपास के जिलों में लोग जिहाद में शरीक होने के लिए आने लगे।

चौधरी साहब ने भी पैरवी करने का निश्चय किया, चाहे कितनी ही आफतें क्यों न सिर पर आ पड़ें। ठाकुर उन्हें इंसाफ़की निगाह में बेकसूर मालूम होता था और बेकसूर की रक्षा करने में उन्हें किसी का खौफ़ न था, घर से निकल खड़े हुए और शहर में जाकर डेरा जमा लिया।

छः महीने तक चौधरी साहब ने जान लड़ाकर मुकदमे की पैरवी की। पानी की तरह रुपये बहाये, आँधी की तरह दौड़े। वह सब किया जो ज़िन्दगी में कभी न किया था, और न पीछे कभी किया। अहलकारों की खुशामदें कीं, वकीलों के नाज़ उठाये, हाकिमों को नजरें दीं और ठाकुर को छुड़ा लिया। सारे इलाके में धूम मच गयी। जिसने सुना, दंग रह गया। इसे कहते हैं शराफत! अपने नौकर को फाँसी से उतार लिया।

लेकिन साम्प्रदायिक द्वेष ने इस सत्कार्य को और ही आँखों से देखा– मुसलमान झल्लाये, हिन्दुओं ने बगलें बजाईं। मुसलामन समझे इनकी रही-सही मुसलमानी भी गायब हो गई। हिन्दुओं ने ख़याल किया, अब इनकी शुद्धि कर लेनी चाहिए, इसका मौका आ गया। मुल्लाओं ने ज़ोर-शोर से तबलीग की हाँक लगानी शुरू की, हिन्दुओं ने भी संगठन का झंडा उठाया। मुसलमानों की मुलसमानी जाग उठी और हिन्दुओं का हिन्दुत्व। ठाकुर के क़दम भी इस रेले में उखड़ गये। मनचले थे ही, हिन्दुओं के मुखिया बन बैठे। ज़िन्दगी में कभी एक लोटा जल तक शिव को न चढ़ाया था, अब देवी-देवताओं के नाम पर लठ चलाने के लिए उद्यत हो गए। शुद्धि करने को कोई मुसलमान न मिला, तो दो-एक चमारों ही की शुद्धि करा डाली। चौधरी साहब के दूसरे नौकरों पर भी असर पड़ा; जो मुसलमान कभी मसजिद के सामने खड़े न होते थे, वे पाँचों वक़्त की नमाज़ अदा करने लगे, जो हिन्दू कभी मन्दिरों में झाँकते न थे, वे दोनों वक़्त सन्ध्या करने लगे।

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