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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


एक हफ़्ता गुज़र गया। सफ़र की तैयारियां हो गयी। प्रातःकाल काटन साहब का ख़त आया कि आप हमारे यहाँ आयेंगे या मुझसे स्टेशन पर मिलेंगे। कुँअर साहब ने जवाब लिखवाया कि आप इधर ही आ जाइएगा। स्टेशन का रास्ता इसी तरफ़ से है। मैं तैयार रहूँगा। यह खत लिखवा कर कुँअर साहब अन्दर गये तो देखा कि उनकी बड़ी साली रामेश्वरी देवी बैठी हुई हैं। उन्हें देखकर बोली– क्या आप सचमुच नैनीताल जा रहे है?

कुँअर– जी हाँ, आज रात की तैयारी है।

रामेश्वरी– अरे! आज ही रात को! यह नहीं हो सकता। कल बच्चा का मुंडन है। मैं एक न मानूँगी। आप ही न होंगे तो लोग आकर क्या करेंगे।

कुँअर– तो आपने पहले ही क्यों न कहला दिया, पहले से मालूम होता तो मैं कल जाने का इरादा ही क्यों करता।

रामेश्वरी– तो इसमें लाचारी की कौन-सी बात है, कल न सही दो-चार दिन बाद सही।

कुँअर साहब की पत्नी सुशीला देवी बोली– हाँ, और क्या, दो-चार दिन बाद ही जाना, क्या साइत टली जाती है।

कुँअर– आह! छोटे साहब से वादा कर चुका हूँ, वह रात ही को मुझे लेने आयँगे। आख़िर वह अपने दिल में क्या कहेंगे?

रामेश्वरी– ऐसे-ऐसे वादे हुआ ही करते हैं। छोटे साहब के हाथ कुछ बिक तो गये नहीं हो।

कुँअर– मैं क्या कहूँ कि कितना मजबूर हूँ! बहुत लज्जित होना पड़ेगा।

रामेश्वरी– तो गोया जो कुछ है वह छोटे साहब ही हैं, मैं कुछ नहीं!

कुँअर– आख़िर साहब से क्या कहूँ, कौन बहाना करूँ?

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