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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


लाला– हुजूर, अब बाहर न बैठें। मेरी तो यही सलाह है। जो कुछ सिर पर पड़ेगी, हम ओढ़ लेंगे।

वाजिद– अजी, पसीने की जगह ख़ून गिरा देंगे। नमक खाया है कि दिल्लगी है।

कुँअर– हाँ, मुझे भी यही मुनासिब मालूम होता है। आप लोग कह दीजिए, बीमार हो गये हैं।

अभी यही बातें हो रही थी कि खिदमतगार ने आकर हाँफते हुए कहा– सरकार, कोऊ आवा है, तौन सरकार का बलावत है।

कुँअर– कौन है पूछा नहीं?

खिद.– कोऊ रंगरेज है सरकार, लाला-लाल मुँह है, घोड़ा पर सवार है।

कुँअर– कहीं छोटे साहब तो नहीं हैं, भई मैं तो भीतर जाता हूँ। अब आबरू तुम्हारे हाथ है।

कुँअर साहब ने तो भीतर घुसकर दरवाज़ा बन्द कर लिया। वाजिदअली ने खिड़की से झाँककर देखा, तो छोटे साहब खड़े थे। हाथ-पाँव फूल गये। अब साहब के सामने कौन जाय? किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। एक दूसरे को ठेल रहा है।

लाला– बढ़ जाओ वाजिदअली। देखो क्या कहते हैं?

वाजिद– आप ही क्यों नहीं चले जाते?

लाला– आदमी ही तो वह भी हैं, कुछ खा तो न जायगा।

वाजिद– तो चले क्यों नहीं जाते।

काटन साहब दो-तीन मिनट खड़े रहे। अब यहाँ से कोई न निकला तो बिगड़कर बोले– यहाँ कौन आदमी है? कुँअर साहब से बोलो, काटन साहब खड़ा है।

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