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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


गिरधर ने दबी ज़बान से कहा– लेकिन रात को कैसे लिखा-पढ़ी होगी तूला। स्टाम्प कहाँ मिलेगा? लिखेगा कौन? गवाह कहाँ हैं?

‘कल साँझ तक भी तुमने लिखा-पढ़ी कर ली तो मेरी जान बच जायगी, गिरधर। मुझे बंसीसिंह लगे हुए हैं, वही मुझे सता रहे हैं, इसीलिए कि वह जानते हैं तुम्हें मुझसे प्रेम है। मैं तुम्हारे ही प्रेम के कारन मारी जा रही हूँ। अगर तुमने देर की तो तुलिया को जीता न पाओगे।’

‘मैं अभी जाता हूँ तुलिया। तेरा हुक्म सिर और आँखों पर। अगर तूने पहले ही यह बात मुझसे कह दी होती तो क्यों यह हालत होती? लेकिन कहीं ऐसा न हो, मैं तुझे देख न सकूँ और मन की लालसा मन में ही रह जाय।’

‘नहीं-नहीं, मैं कल साँझ तक नहीं मरूँगी, विश्वास रक्खो।’

गिरधर उसी छन वहाँ से निकला और रातों-रात पच्चीस कोस की मंज़िल काट दी। दिन निकलते-निकलते सदर पहुँचा, वकीलों से सलाह-मशविरा किया, स्टाम्प लिया, भावज के नाम आधी जायदाद लिखी, रजिस्ट्री कराई, और चिराग जलते-जलते हैरान-परीशान, थका-मांदा, बेदाना-पानी, आशा और दुराशा से कांपता हुआ आकर तुलिया के सामने खड़ा हो गया। रात के दस बज गए थे। उस ववत न रेलें थीं, न लारियाँ, बेचारे को पचास कोस की कठिन यात्रा करनी पड़ी। ऐसा थक गया था कि एक-एक पग पहाड़ मालूम होता था। पर भय था कि कहीं देर तो अनर्थ हो जायगा।

तुलिया ने प्रसन्न मन से पूछा– तुम आ गये गिरधर? काम कर आये?

गिरधर ने काग़ज़ उसके सामने रख दिया और बोला– हाँ तूला, कर आया, मगर अब भी तुम अच्छी न हुई तो तुम्हारे साथ मेरी जान भी जायगी। दुनिया चाहे हँसे, चाहे रोये, मुझे परवाह नहीं है। क़सम ले लो, जो एक घूँट पानी भी पिया हो।

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