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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


उसने धर्मवीर को पुकारा– बेटा, कुछ आकर खा लो।

धर्मवीर अन्दर आया। आज दिन-भर मां-बेटे में एक बात भी न हुई थी। इस वक़्त मां ने धर्मवीर को देखा तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह संयम जिससे आज उसने दिन-भर अपने भीतर की बेचैनी को छिपा रखा था, जो अब तक उड़े-उड़े से दिमाग की शकल में दिखायी दे रही थी, खतरे के पास आ जाने पर पिघल गया था– जैसे कोई बच्चा भालू को दूर से देखकर तो खुशी से तालियां बजाये लेकिन उसके पास आने पर चीख़ उठे।

दोनों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा। दोनों रोने लगे।

मां का दिल खुशी से खिल उठा। उसने आंचल से धर्मवीर के आँसू पोंछते हुए कहा– चलो बेटा, यहाँ से कहीं भाग चलें।

धर्मवीर चिन्ता-मग्न खड़ा था। मां ने फिर कहा– किसी से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। यहाँ से बाहर निकल जायं जिसमें किसी को ख़बर भी न हो। राष्ट्र की सेवा करने के और भी बहुत-से रास्ते हैं।

धर्मवीर जैसे नींद से जागा, बोला– यह नहीं हो सकता अम्माँ। कर्त्तव्य तो कर्त्तव्य है, उसे पूरा करना पड़ेगा। चाहे रोकर पूरा करो, चाहे हँसकर। हाँ, इस ख्याल से डर लगता है कि नतीजा न जाने क्या हो। मुमकिन है निशाना चूक जाये और गिरफ्तार हो जाऊं या उसकी गोली का निशाना बनूं। लेकिन ख़ैर, जो हो, सो हो। मर भी जायेंगे तो नाम तो छोड़ जाऊँगे।

क्षण-भर बाद उसने फिर कहा– इस समय तो कुछ खाने को जी नहीं चाहता, मां। अब तैयारी करनी चाहिए। तुम्हारा जी न चाहता हो तो न चलो, मैं अकेला चला जाऊंगा।

मां ने शिकायत के स्वर में कहा– मुझे अपनी जान इतनी प्यारी नहीं है बेटा, मेरी जान तो तुम हो। तुम्हें देखकर जीती थी। तुम्हें छोड़कर मेरी ज़िन्दगी और मौत दोनों बराबर हैं, बल्कि मौत ज़िन्दगी से अच्छी है।

धर्मवीर ने कुछ जवाब न दिया। दोनों अपनी-अपनी तैयारियों में लग गये। मां की तैयारी ही क्या थी। एक बार ईश्वर का ध्यान किया, रिवाल्वर लिया और चलने को तैयार हो गयी।

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