कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
धर्मवीर ने कहा– यह तुमने क्या किया अम्माँ! ऐसा सुनहरा मौक़ा फिर हाथ न आयेगा।
मां ने कहा– मोटर में मेम भी थी। कहीं मेम को गोली लग जाती तो?
‘तो क्या बात थी। हमारे धर्म में नाग, नागिन और सपोले में कोई भी अन्तर नहीं।’
मां ने घृणा भरे स्वर में कहा– तो तुम्हारा धर्म जंगली जानवरों और वहशियों का है, जो लड़ाई के बुनियादी उसूलों की भी परवाह नहीं करता। स्त्री हर एक धर्म में निर्दोष समझी गयी है। यहाँ तक कि वहशी भी उसका आदर करते हैं।
‘वापसी के समय हरगिज न छोडूंगा।’
‘मेरे जीते– जी तुम स्त्री पर हाथ नहीं उठा सकते।’
‘मैं इस मामले में तुम्हारी पाबन्दियों का गुलाम नहीं हो सकता।’
मां ने कुछ जवाब न दिया। इस नामर्दों जैसी बात से उसकी ममता टुकड़े-टुकड़े हो गयी। मुश्किल से बीस मिनट बीते होंगे कि वहीं मोटर दूसरी तरफ़ से आती दिखायी पड़ी। धर्मवीर ने मोटर को गौर से देखा और उछलकर बोला-लो अम्माँ, अबकी बार साहब अकेला है। तुम भी मेरे साथ निशाना लगाना।
मां ने लपककर धर्मवीर का हाथ पकड़ लिया और पागलों की तरह जोर लगाकर उसका रिवाल्वर छीनने लगा। धर्मवीर ने उसको एक धक्का देकर गिरा दिया और एक क़दम हटाकर रिवाल्वर साधा। एक सेकेण्ड में मां उठी। उसी वक़्त गोली चली। मोटर आगे निकल गयी, मगर माँ ज़मीन पर तड़प रही थी।
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