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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


लेकिन ललिता तो डिक से सदा दूर-दूर रहती है। यह नहीं कि उससे बोलती नहीं, मौके पर खूब बोलती है। पर उस बोलने को बीच में लाकर ही वह अपने और डिक के बीच अनुल्लंघनीय अंतर डालने का उपक्रम करती रहती है। डिक से ही सुना है। यह भी जानता हूँ कि डिक इस अंतर को जितना ही अनुल्लंघनीय पाता है, उतना ही देखता है कि एक अनिश्चित चाह उसे और विवशता से चाबुक मार-मारकर भड़का रही है।

इधर ललिता में एक अंतर देख पड़ने लगा है। एक ओर हँसना एकदम कम हो गया है, दूसरी ओर वक्त-बेवक्त पढ़ना-लिखना होने लगा है। अब वह बहुत पढ़ती है। मानो जी उचाट रहता हो, और उसी को जबर्दस्ती लगाये रखने के लिए ये सब प्रयत्न और प्रपंच किये जाते हों।

इधर एक खबर डिक के बारे में भी लगी है, कुछ दिनों से उसका एक हिन्दी ट्यूटर लगा लिया है और हिंदी प्रवेशिका के पहले भाग को खतम कर डालने में दत-चित्त है।

ये लक्षण बड़े शुभ मालूम होते हैं, दोनों में कुछ खटपट हो गयी है। एक दूसरे को नजदीक लाने में कलह की उन छोटी-छोटी बातों से अचूक और अमोध चीज कोई नहीं। मालूम होता है, ललिता ने अपनी झिड़की से डिक को ठीक मार्ग दिखा दिया है। इसी से डिक उस पर चलने की तैयारी कर रहा है।

इतना सब कुछ समझने पर भी ललिता की ओर से मुझे डर ही लगा रहता है। मालूम नहीं, उसके जी में कब क्या समा उठे। मालूम नहीं वह किस-किस लोक में रहती है, किस प्रणाली से सोचती है। उसके जी का भेद मैं नहीं समझ पाता।

मैं कचहरी से आकर पूरे कपड़े तक नहीं उतार पाया कि ललिता बेधड़क मेरे कमरे में आकर अपनी मेज की शिकायत करने लगी।

‘चाचा जी, मैंने कितनी बार आपसे मेज ठीक करवा देने के लिए कहा? आप ध्यान नहीं देते, यह कैसी बात है?’

मैं जानता हूँ, मुझसे कई बार कहा गया है, फिर भी मैंने कहा–‘अच्छा, अच्छा, अब मैं करवा दूँगा।’

‘कब से अच्छा ही अच्छा हो रहा है। अभी करवा के दीजिए।’

‘अभी? अच्छा अभी सही।’

‘सही-वही नहीं। मैं अभी करवा लूँगी। आप तो यों ही टालते रहते हैं।’

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