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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ



पानवाली

श्री चतुरसेन शास्त्री

[ आप प्रसिद्ध वैद्य थे। अंतिम समय आप दिल्ली में ही थे। आप गद्य काव्य लेखकों में सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे। आप हृदय के भावों की उथल-पुथल का मनोरम चित्रण करने में सिद्वहस्त हैं। आपकी कहानियाँ और उपन्यास उच्चकोटि के होते हैं। आपकी भाषा मुहावरेदार होती है। आपकी मुख्य रचनाएँ ये हैं–
उपन्यास–हृदय की प्यास, हृदय की परख, अमर अभिलाषा।
गल्प-संग्रह–अक्षत, रजकण।
गद्य-काव्य–अंतस्तल, प्रणाम, संदेश।
नाटक–उत्सर्ग, अमर राठौर। ]

लखनऊ के अमीनाबाद पार्क में इस समय वहाँ घंटाघर है, वहाँ से सत्तर वर्ष पूर्व एक छोटी-सी टूटी हुई मस्जिद थी, जो भूतोंवाली मस्जिद कहलाती थी, और अब जहाँ गंगा-पुस्तक-माला की आलीशान दूकान है, वहाँ एक छोटा-सा एक-मंजिला घर था। चारों तरफ न आज की–सी बाहर थी, न बिजली की चमक, न बढ़िया सड़कें, न मोटर, न मेम साहिबाओं का इतना जमघट।

लखनऊ के आखिरी बादशाह प्रसिद्व वाजिदअली की अमलदारी थी। ऐयाशी और ठाट-बाट के दौर-दौरे थे। मगर इस मुहल्ले में रौनक न थी। उस घर में एक टूटी-सी कोठरी में एक बुढ़िया मनहूस सूरत, सन के समान बालों को बिखेरे, बैठी किसी की प्रतीक्षा कर रही थी। घर में एक दिया धीमी आभा से टिमटिमा रहा था। रात के दस बज गये थे। जाड़े के दिन थे, सभी लोग अपने-अपने घर में रजाइयों में मुँह लपेटे पड़े थे, गली और सड़क पर सन्नाटा था।

धीरे-धीरे बढ़िया वस्त्रों से आच्छादित एक पालकी इस टूटे घर के द्वार पर चुपचाप रुकी और काले वस्त्रों से आच्छादित एक स्त्री-मूर्ति ने बाहर निकलकर धीरे से द्वार पर थपकी दी। तत्काल द्वार खुला और स्त्री ने घर में प्रवेश किया।

बूढ़ी ने कहा–‘खैर तो है?’

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