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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


प्रताप ने इस स्थिति की स्वप्न में भी कल्पना न की थी। वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। महाराज साग्रह उसके हाथ में खड्ग देने लगे और वह पैरों पड़ने के सिवा कुछ न कर सका। तब महाराज ने उसे छाती से लगा लिया और समुद्र के से गम्भीर स्वर में कहने लगे– ‘सुनो प्रताप, सम्राट, राष्ट्र की एक व्यक्ति में केन्द्रित सत्ता है। भाई हो अथवा बेटा, कोई उसे बाँट नहीं सकता। यह वैभव देखकर न चकपकाओ। राष्ट्र ने अपनी महत्ता दिखाने के लिए और स्वयं प्रभावित होने के लिए इस वैभव को–इन अधिकारों को, राजा से सम्बद्ध किया है। ये अधिकार सम्पत्ति के, विलासिता के, स्वेच्छाचारिता के द्योतक नहीं। यह तराजू की कमाई नहीं है जो तौलकर जुटती और तौलकर ही बँटती भी है। यह है शक्ति की कमाई, और वह शक्ति क्या है? कच्चे सूत हाथी को बाँध लेते हैं, किंतु कब? जब एक में मिलकर वे रस्सी बन जाते हैं, तब। हाँ, कौटुम्बिक जीवन में यदि हम-तुम दो हों तो मैं अवश्य दंडनीय हूँ! समझे भाई?

‘इसी समय राजमहिषी मुस्कराती हुई महाराजा से कहने लगीं–‘नाथ इसे लक्ष्मी चाहिए, लक्ष्मी–आप समझे कैसी–गृहलक्ष्मी।’

कुमार लज्जित हो गया। फिर वह हँसता हुआ सम्राट-सम्राज्ञी दोनों को सम्बोधित कर कहने लगा–‘क्या समय बिता के ही घूमने चलिएगा?’

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