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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


उसने अपने साथियों, सरदारों और आनेवाली पीढ़ियों को कसम दिलायी कि जब तक चित्तौड़ पर तुम्हारा अधिकार न हो जाय, तुम सुख-विलास से दूर रहो। तुम क्या मुँह लेकर सोने-चाँदी के बर्तनों में खाओगे और मखमली गद्दों पर सोओगे, जब कि तुम्हारे बाप-दादों का देश शत्रुओं के अत्याचार से रोता-चिल्लाता रहेगा? तुम क्या मुँह लेकर आगे नगाड़े बजाते और अपनी (सिसोदिया) जाति का झंडा ऊँचा किए हुए निकलोगे, जब कि वह स्थल, जहाँ तुम्हारे बाप-दादों की नालें गड़ी हैं, और जो उनके कीर्ति-कलापों का सजीव स्मारक है, शत्रु के पैरों से रौंदा जा रहा है?
तुम क्षत्रिय हो, तुम्हारे खून में जोश है, तुम कसम खाओ कि जब तक चित्तौड़ पर अधिकार न कर लोगे, हरे पत्ते पर खाओगे, बोरियों पर सोओगे और नगाड़ा सेना के पीछे रखोगे; क्योंकि तुम मातम कर रहे हो और यह बातें तुमको सदा याद दिलाती रहेंगी कि तुमको एक बड़े जातीय कर्तव्य का पालन करना है।

राणा जब तक जीवित रहा, इन व्रतों का पालन करता रहा। उसके बाद उसके उत्तराधिकारी भी उनका पालन करते आये और अब तक यह रस्म चली आती है, अंतर यह है कि पहले इस रस्म का कुछ अर्थ था, अब वह बिलकुल बेमानी हो गई है। विलासिता ने निकास की सूरतें निकाल ली हैं, तो भी जब सुनहरे बर्तनों में खाते हैं, तो चंद पत्ते ऊपर से रख लेते हैं। मखमली गद्दों पर सोते हैं, तो इधर-उधर पयाल के टुकड़े फैला देते हैं।

राणा ने इतने ही पर संतोष न किया। उसने उदयपुर को छोड़ा और कुंभलमेर को राजधानी बनाया। अनावश्यक और अनुचित खर्च, जो महज नाम और दिखावे के लिए किए जाते थे, बंद कर दिए। जागीरों का फिर से नई शर्तों के अनुसार वितरण किया। मेवाड़ का वह सारा हल्का, जहाँ शत्रु का प्रवेश संभव हो सकता था और पर्वत-प्राचीर के बाहर था, सपाट मैदान बना दिया गया। कुएँ पटवा दिए गए और सारी आबादी पहाड़ों के अंदर बसा दी गई। सैकड़ों मील तक उजाड़ खंड हो गया और यह सब इसलिए कि अकबर इधर रूख करे, तो उसे कर्बला के मैदान का सामना हो। उस उपजाऊ मैदान में अनाज के बदले लम्बी-लम्बी घास लहराने लगी, बबूल के काँटों से रास्ते बन्द हो गए और जंगली जानवरों ने उसे अपना घर बना लिया।

परन्तु अकबर भी राज्य-विस्तार-विद्या का आचार्य था। उसने राजपूतों की तलवार की काट देखी थी और खूब जानता था कि राजपूत जब अपनी जानें बेचते हैं, तो सस्ती नहीं बेचते। इस शेर को छेड़ने से पहले उसने मारवाड़  के राजा मालदेव को मिलाया। आमेर का राजा भगवानदास और उसका बहादुर बेटा मानसिंह दोनों पहले ही अकबर के बेटे बन चुके थे। दूसरे राजाओं ने जब देखा कि ऐसे-ऐसे प्रबल प्रतापी नरेश अपनी जान की खैर मना रहे हैं, तो वह भी एक-एक करके शुभचिंतक बन गए। इसमें कोई राणा का मामू था, तो कोई फूफा। यहाँ तक कि उसका चचेरा भाई सागरजी भी उससे विमुख होकर अकबर से आ मिला था।

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